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रंगभूमि


आप उठे जाते हैं। वे इतने हल्के हो गये थे। जरा देर में दोनों आदमी सड़क पर आ गये।

विनय—"सबेरा होते ही दौड़-धूप शुरू हो जायगी।"

नायकराम—"तब तक हम लोग यहाँ से सौ कोस पर होंगे।"

विनय—"घर से भी तो वारंट द्वारा पकड़ मँगा सकते हैं।"

नायकराम—"वहाँ की चिंता मत करो। वह अपना राज है।"

आज सड़क पर बड़ी हलचल थी। सैकड़ों आदमी लालटेने लिये कस्बे से छावनी की तरफ जा रहे थे। एक गोल इधर से आता था, दूसरा उधर से। प्रायः लोगों के हाथों में लाठियाँ थीं। विनयसिंह को कुतूहल हुआ, आज यह भीड़-भाड़ कैसी! लोगों पर वह निःस्तब्ध तत्परता छाई थी, जो किसी भयंकर उद्वेग की सूचक होती है। किंतु किसी से कुछ पूछ न सकते थे कि कहीं वह पहचान न जाय।

नायकराम-“देवी के मंदिर तक तो पैदल ही चलना पड़ेगा।"

विनय-"पहले इन आदमियों से तो पूछो, कहाँ दौड़े जा रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई।"

नायकराम-"होगी, हमें इन बातों से क्या मतलब? चलो, अपनी राह चलें।"

विनय-"नहीं-नहीं, जरा पूछो तो, क्या बात है?”

नायकराम ने एक आदमी से पूछा, तो ज्ञात हुआ कि नौ बजे के समय एजेंट साहब अपनी मेम के साथ मोटर पर बैठे हुए बाजार की तरफ से निकले। मोटर बड़ी तेजी से जा रही थी। चौराहे पर पहुंची, तो एक आदमी, जो बाई ओर से आ रहा। था, मोटर के नीचे दब गया। साहब ने आदमी को दबते हुए देखा; पर मोटर को रोका नहीं। यहाँ तक कि कई आदमी मोटर के पीछे दौड़े। बाजार के इस सिरे तक आते-आते मोटर को बहुत-से आदमियों ने घेर लिया। साहब ने आदमियों को डाँटा कि अभी हट जाओ। जब लोग न हटे, तो उन्होंने पिस्तौल चला दी। एक आदमी तुरंत गिर पड़ा। अब लोग क्रोधोन्माद की दशा में साहब के बँगले पर जा रहे थे।

विनय ने पूछा—“वहाँ जाने की क्या जरूरत है?”

एक आदमी—"जो कुछ होना है, वह हो जायगा। यही न होगा, मारे जायँगे। मारे तो यों ही जा रहे हैं। एक दिन तो मरना है ही। दस-पाँच आदमी मर गये, तो कौन संसार सूना हो जायगा?"

विनय के होश उड़ गये। यकीन हो गया कि आज कोई उपद्रव अवश्य होगा। बिगड़ी हुई जनता वह जल-प्रवाह है, जो किसी के रोके नहीं रुकता। ये लोग झल्लाये हुए हैं। इस दशा में इनसे धैर्य और क्षमा की बातें करना व्यर्थ है। कहीं ऐसा न हो कि ये लोग बँगले को घेर लें। सोफिया भी वहीं है! कहीं उस पर न आघात कर बठे। दुरावेश में सौजन्य का नाश हो जाता है। नायकराम से बोले- "पण्डाजी, जरा बँगले तक होते चलें।"