पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३२८
रंगभूमि


कर्णधार बने हुए थे, यहाँ तक कि सरदार नीलकंठ भी उनसे दबते थे। महाराना साहब को उन पर इतना विश्वास हो गया था कि उनसे सलाह लिये बिना कोई काम न करते। उनके लिए आने-जाने की कोई रोक-टोक न थी। और मि० क्लार्क से तो उनकी दाँतकाटी रोटी थी। दोनों एक ही बँगले में रहते थे और अंतरंग में सरदार साहब की जगह पर विनय की नियुक्ति की चर्चा की जाने लगी थी।

प्रायः साल-भर तक रियासत में यही आपाधापी रही। जब जसवंतनगर विद्रोहियों से पाक हो गया, अर्थात् वहाँ कोई जवान आदमी न रहा, तो विनय ने स्वयं सोफ़ी का सुराग लगाने के लिए कमर बाँधी। उनकी सहायता के लिए गुप्त पुलिस के कई अनुभवी आदमी तैनात किये गये। चलने की तैयारियाँ होने लगीं। नायकराम अभी तक कमजोर थे। उनके बचने की आशा ही न रही थी; पर जिंदगी बाकी थी, बच गये। उन्होंने विनय को जाने पर तैयार देखा, तो साथ चलने का निश्चय किया। आकर बोले-"भैया, मुझे भी साथ ले चलो, मैं यहाँ अकेला न रहूँगा।"

विनय—"मैं कहीं परदेश थोड़े ही जाता हूँ। सातवें दिन यहाँ आया करूँगा, तुमसे मुलाकात हो जायगी।"

सरदार नीलकंठ वहाँ बैठे हुए थे। बोले-"अभी तुम जाने के लायक नहीं हो।"

नायकराम—“सरदार साहब, आप भी इन्हीं की-सी कहते हैं। इनके साथ न रहूँगा, तो रानीजी को कौन मुँह दिखाऊँगा!"

विनय—"तुम यहाँ ज्यादा आराम से रह सकोगे, तुम्हारे ही भले की कहता हूँ।"

नायकराम—"सरदार साहब, अब आप ही भैया को समझाइए। आदमी एक घड़ी की नहीं चलाता, एक हफ्ता तो बहुत है। फिर मोरचा लेना है वीरपालसिंह से, जिसका लोहा मैं भी मानता हूँ। मेरी कई लाठियाँ उसने ऐसी रोक लीं कि एक भी पड़ जाती, तो काम तमाम हो जाता। पक्का फेकैत है। क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी है?"

नीलकंठ—"हाँ, वीरपाल है तो एक ही शैतान। न जाने कब, किधर से, कितने आदमियों के साथ टूट पड़े। उसके गोइन्दे सारी रियासत में फैले हुए हैं।"

नायकराम—"तो ऐसे जोखिम में कैसे इन का साथ छोड़ दूँ? मालिक की चाकरी में जान भी निकल जाय, तो क्या गम है, और वह जिन्दगानी है किसलिए!"

विनय—"भई, बात यह है कि मैं अपने साथ किसी गैर की जान जोखिम में नहीं डालना चाहता।”

नायकराम—"हाँ, जब आप मुझे गैर समझते हैं, तो दूसरी बात है। हाँ, गैर तो हूँ ही; गैर न होता, तो रानीजी के इशारे पर यहाँ कैसे दौड़ा आता, जेल में जाकर कैसे बाहर निकाल लाता और साल भर तक खाट क्यों सेता? सरदार साहब, हजूर ही अब इन्साफ कीजिए। मैं गैर हूँ? जिसके लिए जान हथेली पर लिये फिरता हूँ, वही गैर समझता है।"