नीलकंठ—"विनयसिंह, यह आपका अन्याय है। आप इन्हें गैर क्यों कहते हैं? अपने हितैषियों को गैर कहने से उन्हें दुःख होता है।"
नायकराम—"बस, सरदार साहब, हजूर ने लाख रुपये की बात कह दी। पुलिस के आदमी गैर नहीं हैं और मैं गैर हूँ!"
विनय—"अगर गैर कहने से तुम्हें दुःख होता है, तो मैं यह शब्द वापस लेता हूँ। मैंने गैर केवल इस विचार से कहा था कि तुम्हारे संबन्ध में मुझे घरवालों को जवाब देना पड़ेगा। पुलिसवालों के लिए तो कोई मुझसे जवाब न मागेगा।"
नायकराम—“सरदार साहब, अब आप ही इसका जवाब दीजिए। यह मैं कैसे कहूँ कि मुझे कुछ हो गया, तो कुँवर साहब कुछ पूछ-ताछ न करेंगे, उनका भेजा हुआ आया ही हूँ। भैया को जवाबदेही तो जरूर करनी पड़ेगी।"
नीलकंठ—"यह माना कि तुम उनके भेजे हुए आये हो; मगर तुम इतने अबोध नहीं हो कि तुम्हारे हानि-लाभ की जिम्मेदारी विनयसिंह के सिर हो। तुम अपना अच्छा-बुरा आप सोच सकते हो। क्या कुँवर साहब इतना भी न समझेंगे।"
नायकराम—“अब कहिए धर्मावतार, अब तो मुझे ले चलना पड़ेगा, सरदार साहब ने मेरी डिग्री कर दी। मैं कोई नाबालक नहीं हूँ कि सरकार के सामने आपको जवाब देना पड़े।"
अन्त को विनय ने नायकराम को साथ ले चलना स्वीकार किया और दो-तीन दिन पश्चात् दस आदमियों की एक टोली, भेष बदलकर, सब तरह लैस होकर, टोहिये कुत्तों को साथ लिये, दुर्गम पर्वतों में दाखिल हुई। पहाड़ों से आग निकल रही थी। बहुधा कोसों सक पानी को एक बूंद भी न मिलती, रास्ते पथरीले, वृक्षों का पता नहीं, दोपहर को लोग गुफाओं में विश्राम करते थे, रात को बस्ती से अलग किसी चौपाल या मन्दिर में पड़ रहते। दो-दो आदमियों का संग था। चौबीस घण्टों में एक बार सब आदमियों को एक स्थान पर जमा होना पड़ता था। दूसरे दिन का कार्यक्रम निश्चय करके लोग फिर अलग-अलग हो जाते थे। नायकराम और विनयसिंह की एक जोड़ी थी। नायकराम अभी तक चलने-फिरने में कमजोर था, पहाड़ों की चढ़ाई में थककर बैठ जाता, भोजन की मात्रा भी बहुत कम हो गई थी, दुर्बल इतना हो गया था कि पहचानना कठिन था, किन्तु विनयसिंह पर प्राणों को न्यौछावर करने को तैयार रहता था। यह जानता था कि ग्रामीणों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, विविध स्वभाव और श्रेणी के मनुष्यों से परिचित था। जिस गाँव में जा पहुँचता, धूम मच जाती कि काशी के पण्डाजी पधारे हैं। भक्तजन जमा हो जाते, नाई-कहाँर आ पहुँचते, दूध-घी, फल-फूल, शाक-भाजी आदि की रेल-पेल हो जाती। किसी मंदिर के चबूतरे पर खाट पड़ जाती, बाल-वृद्ध, नर-नारी बेधड़क पण्डाजी के पास आते और यथाशक्ति दक्षिणा देते। पण्डाजी बातों-बातों में उनसे गाँव का सारा समाचार पूछ लेते। विनयसिंह को अब ज्ञात हुआ कि नायकराम साथ