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रंगभूमि


उन पर अपना सिर रख दिया और बोले-'अब तुम्हारा जो धरम हो, वह करो। मैं मूरख हूँ, गँवार हूँ, पर बाम्हन हूँ। तुम सामरथी पुरुष हो। जैसा उचित समझो, करो।

इंद्रदत्त अब भी न पसीजे, अपने पैरों को छुड़ाकर चले जाने की चेष्टा की, पर उनके मुख से स्पष्ट विदित हो रहा था कि इस समय बड़े असमंजस में पड़े हुए हैं, और इस दीनता की उपेक्षा करते हुए अत्यंत लजित हैं। वह बलिष्ठ पुरुष थे, स्वयंसेवकों में कोई उनका-सा दीर्घकाय युवक न था। नायकराम अभी कमजोर थे। निकट था कि इंद्रदत्त अपने पैरों को छुड़ाकर निकल जाय कि नायकराम ने विनय से कहा-"भैया, खड़े क्या देखते हो? पकड़ लो इनके पाँव, देखू, यह कैसे नहीं बताते।"

विनयसिंह कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए खुशामद करना भी अनुचित समझते थे, पाँव पर गिरने की बात ही क्या। किसी संत-महात्मा के सामने दीन भाव प्रकट करने से उन्हें संकोच न था, अगर उससे हार्दिक श्रद्धा हो। केवल अपना काम निकालने के लिए उन्होंने सिर झुकाना सीखा ही न था। पर जब उन्होंने नायकराम को इंद्रदत्त के पैरों पर गिरते देखा, तो आत्मसम्मान के लिए कोई स्थान न रहा। सोचा, जब मेरी खातिर नायकराम ब्राह्मण होकर यह अपमान सहन कर रहा है, तो मेरा दूर खड़े शान की लेना मुनासिब नहीं। यद्यपि एक क्षण पहले इंद्रदत्त से उन्होंने अविनय-पूर्ण बातें की थीं और उनकी चिरौरी करते हुए लज्जा आती थी, पर सोफ़ी का समाचार भी इसके सिवा अन्य किसी उपाय से मिलता हुआ नहीं नजर आता था। उन्होंने आत्मसम्मान को भी सोफी पर समर्पण कर दिया। मेरे पास यही एक चीज थी, जिसे मैंने अभी तक तेरे हाथ में न दिया था। आज वह भी तेरे हवाले करता हूँ। आत्मा अब भी सिर न झुकाना चाहती थी, पर कमर झुक गई। एक पल में उनके हाथ इंद्रदत्त के पैरों के पास जा पहुँचे। इंद्रदत्त ने तुरंत पैर खींच लिये और विनय को उठाने के चेष्टा करते हुए बोले-"विनय, यह क्या अनर्थ करते हो, हैं, हैं!"

विनय को दशा उस सेवक की-सी थी, जिसे उसके स्वामी ने थूककर चाटने का दंड दिया हो। अपनी अधोगति पर रोना आ गया।

नायकराम ने इंद्रदत्त से कहा-“भैया, मुझे भिच्छुक समझकर दुत्कार सकते थे; लेकिन अब कहो!"

इंद्रदत्त संकोच में पड़कर बोले-"विनय, क्यों मुझे इतना लजित कर रहे हो! मैं वचन दे चुका हूँ कि किसी से यह भेद न बताऊँगा।"

नायकराम-"तुमसे कोई जबरजस्ती तो नहीं कर रहा है। जो अपना धरम समझो, वह करो, तुम आप बुद्धिमान हो।”

इंद्रदत्त ने खिन्न होकर कहा-"जबरदस्ती नहीं, तो और क्या है! गस्ज बावली होती है, पर आज मालूम हुआ कि वह अंधी भी होती है। विनय, व्यर्थ ही अपनी आत्मा पर यह अन्याय कर रहे हो। भले आदमी, क्या आत्मगौरव भी घोलकर पी