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रंगभूमि


लेटो। मिस साहब आयें, तो हरिइच्छा, नहीं तो तड़के यहाँ से चल देंगे। कहीं-न-कहीं राह मिल ही जायगी। मैं यह पिस्तौल लिये बैठा हूँ, कोई खटका हुआ, तो देखी जायगी। मेरा तो अब यहाँ से जी भर गया; न जाने वह कौन दिन होगा कि फिर घर के दरसन होंगे।"

विनय-"मेरा तो घर से नाता ही टूट गया। सोफिया के साथ जाऊँगा, तो घुसने ही न पाऊँगा; सोफिया न मिली, तो जाऊँगा ही नहीं। यहीं धूनी रमाऊंगा।"

नायकराम-"भैया, तुम्हारे सामने बोलना छोटा मुँह बड़ी बात है, पर साथ रहते-रहते ढीठ हो गया हूँ। मुझे तो मिस साहब ऐसी कोई बड़ी अप्सरा नहीं मालूम होती। यहाँ तो भगवान् की दया से नित्य ही ऐसी-ऐसी सूरतें देखने में आती हैं कि मिस साहब उनके सामने पानी भरे। मुखड़ा देखो, तो जैसे हीरा दप-दप कर रहा हो। और, इनके लिए तुम राज-पाट त्यागने पर तैयार हो! सच कहता हूँ, रानीजी को बड़ा कलक होगा। माँ का दिल दुखाना महापार है। कुछ हालचाल भी तो नहीं मिला, न जाने चल बसीं कि हैं।"

विनय-"पण्डाजी, मैं सोफी के रूप का उपासक नहीं हूँ। मैं स्त्रयं नहीं जानता कि उसमें वह कौन-सी बात है, जो मुझे इतना आकर्षित कर रही है। मैं उसके लिए राज-पाट तो क्या, अपना धर्म तक त्याग सकता हूँ। अगर सारा संसार मेरे अधीन होता, तो भी मैं उसे सोफिया की भेंट कर देता। अगर आज मुझे मालूम हो जाय कि सोफी इस संसार में नहीं है, तो तुम मुझे जीता न पाओगे। उससे मिलने की आशा ही मेरा जीवन-सूत्र है। उसके चरणों पर प्राण दे देना ही मेरे जीवन की प्रथम और अन्तिम अभिलाषा है।"

वृक्ष की ओर लालटेन का प्रकाश दिखाई दिया। दो आदमी आ रहे थे। एक के हाथ में लालटेन थी, दूसरे के हाथ में जाजम। विनय ने दोनों को पहचान लिया। एक तो वीरपालसिंह था, दूसरा उसका साथी। वीरपाल ने समीप आकर लालटेन रख दी और विनय को प्रणाम करके दोनों चुपचाप जाजम बिछाने लगे। जाजम बिछाकर वीरपाल बोला-"आइए, बैठ जाइए, आपको बड़ा कष्ट हुआ। मिस साहब अभी आ रही हैं।"

आशा और निराशा की द्विविध तरंगों में विनय का दिल बैठा जाता था। उन्हें लजा आ रही थी कि जिन मनुष्यों को मैंने अधिकारियों की मदद से मिटा देने का प्रयत्न किया, अंत में उन्हीं के द्वार का मुझे भिक्षुक बनना पड़ा। मजा तो जब आता कि ये सब हथकड़ियाँ पहने हुए मेरे सामने आते और मैं इन्हें क्षमा प्रदान करता। वास्तव में विजय का सेहरा इन्हीं के सिर रहा। आह! जिन्हें मैं पामर और हत्यारा समझता था, वे ही आज मेरे भाग्य के विधाता बने हुए हैं।

जब वे जाजम पर जा बैठे और नायकराम सजग होकर टहलने लगे, तो वीरपाल ने कहा-"कुँवर साहब, मेरा परम सौभाग्य है कि आज आपको अपने सामने अदालत की कुर्सी पर बैठे न देखकर अपने द्वार पर बैठे देख रहा हूँ, नहीं तो उन अभागों के