ही ने बचाया था और मिस साहब ही की खातिर से आप इतने दिनों हमारे हाथों से बचे रहे। हमें आपसे भेंट करने का अवसर न था, पर हमारी बंदूकों को था। मिस साहब आपको याद करके घंटों रोया करती थीं, पर अब उनका हृदय आपसे ऐसा फट गया है कि आपका कोई नाम भी लेता है, तो चिढ़ जाती हैं। वह तो कहती हैं, मुझे ईश्वर ने अपना धर्म-परित्याग करने का यह दंड दिया है। पर मेरा विचार है कि अब भी आपके प्रति उनके हृदय में असीम श्रद्धा है। प्रेम की भाँति मान भी घनिष्ठता ही से उत्पन्न होता है। आप उनसे निराश न हूजिएगा। आप राजा हैं, आपके लिए सब
कुछ क्षम्य है। धर्म का बंधन तो छोटे आदमियों के लिए है।"
सहसा उसी वृक्ष की ओर दूसरी लालटेन का प्रकाश दिखाई दिया। एक वृद्धा लोटा लिये आ रही थी। उ[१]सके पीछे सोफी थी-हाथ में एक थाली लिये हुए, जिसमें एक घी का दीपक जल रहा था। वही सोफिया थी, वही तेजस्वी सौंदर्य की प्रतिमा, कांति को मंदता ने उसे एक अवर्णनीय शुभ्र, आध्यात्मिक लावण्य प्रदान कर दिया था, मानों उसकी सृष्टि पंचभूत से नहीं, निर्मल ज्योत्स्ना के परमाणुओं से हुई हो।
उसे देखते ही विनय के हृदय में ऐसा उद्गार उठा कि दौड़कर इसके चरणों पर गिर पड। सौंदर्य-प्रतिमा मोहित नहीं करती, वशीभूत कर लेती है।
बुढ़िया ने लोटा रख दिया और लालटेन लिये चली गई। वीरपालसिंह और उसका साथी भी वहाँ से हटकर दूर चले गये। नायकराम भी उन्हीं के साथ हो गये थे।
विनय ने कहा-“सोफिया, आज मेरे जीवन का Lucky day है, मैं तो निराश हो चला था।"
सोफिया-"मेरा परम सौभाग्य था कि आपके दर्शन हुए। आपके दर्शन बदे थे, नहीं तो मरने में कोई कसर न रह गई थी।"
विनय की आशंकाएँ निर्मल होती हुई नज़र आई। इंद्रदत्त और वीरपाल ने मुझे अनायास ही चिंता में डाल दिया था! सम्मिलन प्रेम को सजग कर देता है। मनोल्लास के प्रवाह में उनको सरल बुद्धि किसी पुष्पमाला के समान बहती चली जाती थी। इस वाक्य में कितना तीव्र व्यंग्य था, यह उनकी समझ में न आया।
सोफी ने थाल में से दही और चावल निकालकर विनय के मस्तक पर तिलक लगाया और मुस्किराकर बोली-“अब आरती करूँगी।"
विनय ने गद्गद होकर कहा-"प्रिये, यह क्या ढकोसला कर रही हो? तुम भी इन रस्मों के जाल में फंस गई!"
सोफी-वाह! आपका आदर-सत्कार कैसे न करूँ? आप मेरे मुक्तिदाता हैं, मुझे इन डाकुओं और वधिकों के पंजे से छुड़ा रहे हैं, आपका स्वागत कैसे न करूँ! मेरे कारण आपने रियासत में अंवेर मचा दिया, सैकड़ों निरपराधियों का खून कर दिया, कितने ही घरों के चिराग गुल कर दिये, माताओं को पुत्र-शोक का मजा चखा दिया, रमणियों को वैधव्य की गोद में बैठा दिया, और सबसे बड़ी बात यह कि अपनी आत्मा