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रंगभूमि

भैरो—"कहीं गया नहीं सरकार, अपने घर में!"

राजा—"बड़ा ढीठ है। गाँववाले कुछ नहीं बोलते?"

भैरो—"कोई नहीं बोलता हजूर!"

राजा—"औरत को मारते बहुत हो?"

भैरो—“सरकार, औरत से भूल-चूक होती है, तो कौन नहीं मारता?"

राजा—"बहुत मारते हो कि कम?"

भैरो—हजूर, क्रोध में यह विचार कहाँ रहता है।"

राजा—"कैसी औरत है, सुंदर?"

भैरो—"हाँ हजूर, देखने-सुनने में बुरी नहीं है।"

राजा—"समझ में नहीं आता, सुंदर स्त्री ने अंधे को क्यों पसंद किया! ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने दाल में नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्री को मारकर निकाल दिया हो और अंधे ने रख लिया हो?"

भैरो—“सरकार, औरत मेरे रुपये चुराकर सूरदास को दे आई। सबेरे सूरदास रुपये लौटा गया। मैंने चकमा देकर पूछा, तो उसने चोर को भी बता दिया। इस बात पर मारता न, तो क्या करता?"

राजा—"और कुछ हो, अंधा है दिल का साफ।"

भैरो—"हजूर, नोयत का अच्छा नहीं।” यद्यपि महेंद्रकुमारसिंह बहुत न्यायशील थे और अपने कुत्सित मनोविचारों को प्रकट करने में बहुत सावधान रहते थे। ख्याति-प्रिय मनुष्य को प्रायः,अपनी वाणी पर पूर्ण अधिकार होता है, पर वह सूरदास से इतने जले हुए थे, उसके हाथों इतनी मानसिक यातनाएँ पाई थीं कि इस समय अपने भावों को गुप्त न रख सके। बोले-"अजी, उसने मुझे यहाँ इतना बदनाम किया कि घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। क्लार्क साहब ने जरा उसे मुँह क्या लगा लिया कि सिर चढ़ गया। यों मैं किसी गरीब को सताना नहीं चाहता, लेकिन यह भी नहीं देख सकता कि वह भले आदमियों के बाल नोचे। इजलास तो मेरा ही है, तुम उस पर दावा कर दो। गवाह मिल जायँगे न?"

भैरो—"हजूर, सारा मुहल्ला जानता है।"

राजा—“सबों को पेश करो। यहाँ लोग उसके भक्त हो गये हैं। समझते हैं, वह कोई ऋषि है। मैं उसकी कलई खोल देना चाहता हूँ। इतने दिनों बाद यह अवसर मेरे हाथ आया है। मैंने अगर अब तक किसी से नीचा देखा, तो इसी अंधे से। उस पर न पुलिस का जोर था, न अदालत का। उसकी दीनता और दुर्बलता उसका कवच बनी हुई थी। यह मुकद्दमा उसके लिए वह गहरा गड्ढा होगा, जिसमें से वह निकल न सकेगा। मुझे उसकी ओर से शंका थी, पर एक बार जहाँ परदा खुला कि मैं निश्चित हुआ। विष के दाँत टूट जाने पर साँप से कौन डरता है! हो सके, तो जल्दी ही यह मुकद्दमा दायर कर दो।"