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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३८२

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रंगभूमि


और मिला। महेंद्र ने आँखें निकालकर कहा—"यह मैं नहीं कहता, तुम कहती हो। आखिर बात क्या है? मैं तुमसे जिज्ञासा-भाव से पूछ रहा हूँ कि तुम क्यों बार-बार वे ही काम करती हो, जिनसे मेरी निंदा और जग-हँसाई हो, मेरी मान-प्रतिष्ठा धूल में मिल जाय, मैं किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँ? मैं जानता हूँ, तुम जिद से ऐसा नहीं करतीं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँ, तुम मेरे आदेशानुसार चलने का प्रयास भी करती हो। किंतु फिर भी जो यह अपवाद हो जाता है, उसका क्या कारण है? क्या यह बात तो नहीं कि पूर्व जन्म में हम और तुम एक दूसरे के शत्रु थे; या विधाता ने मेरी अभिलाषाओं और मंसूबों का सर्वनाश करने के लिए तुम्हें मेरे पल्ले बाँध दिया है? मैं बहुधा इसी विचार में पड़ा रहता हूँ, पर कुछ रहस्य नहीं खुलता।”

इंदु—"मुझे गुप्त ज्ञान रखने का तो दावा नहीं। हाँ, अगर आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर इंद्रदत्त को ताकीद कर दूँ कि मेरा नाम न जाहिर होने पाये।"

महेंद्र—"क्या बच्चों की-सी बातें करती हो; तुम्हें यह सोचना चाहिए था कि यह चंदा किस नीयत से जमा किया जा रहा है। इसका उद्देश्य है मेरे न्याय का अपमान करना, मेरी ख्याति की जड़ खोदना। अगर मैं अपने सेवक की डाँट-फटकार करूँ और तुम उसकी पीठ पर हाथ फेरो, तो मैं इसके सिवा और क्या समझ सकता हूँ कि तुम मुझे कलंकित करना चाहती हो? चंदा तो खैर होगा ही, मुझे उसके रोकने का अधिकार नहीं है—जब तुम्हारे ऊपर कोई वश नहीं है, तो दूसरों का क्या कहना- लेकिन मैं जुलूस कदापि न निकलना दूंगा। मैं उसे अपने हुक्म से बंद कर दूंगा और अगर लोगों को ज्यादा तत्पर देखूगा, तो सैनिक-सहायता लेने में भी संकोच न करूँगा"

इंदु—"आप जो उचित समझें, करें। मुझसे ये सब बातें क्यों कहते हैं?"

महेंद्र—"तुमसे इसलिए कहता हूँ कि तुम भी उस अंधे के भक्तों में हो, कौन कह सकता है कि तुमने उससे दीक्षा लेने का निश्चय नहीं किया है! आखिर रैदास भगत के चेले ऊँची जातों में भी तो हैं!"

इंदु—"मैं दीक्षा को मुक्ति का साधन नहीं समझती और शायद कभी दीक्षा न लँगी। मगर हाँ, आप चाहे जितना बुरा समझें, दुर्भाग्य-वश मुझे यह पूरा विश्वास हो गया है कि सूरदास निरपराध है। अगर यही उसकी भक्ति है, तो मैं अवश्य उसकी भक्त हूँ!"

महेंद्र—"तुम कल जुलूस में तो न जाओगी?"

इंदु—"जाना तो चाहती थी, पर अब आपकी खातिर से न जाऊँगी। अपने सिर पर नंगी तलवार लटकते नहीं देख सकती।"

महेंद्र—"अच्छी बात है, इसके लिए तुम्हें अनेक धन्यवाद!"

इंदु अपने कमरे में आकर लेट गई। उसका चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। वह "देर तक राजा साहब की बातों पर विचार करती रही, फिर आप-ही-आप बोली—"भग-