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रंगभूमि


वान्, यह जीवन असह्य हो गया है। या तो तुम इनके हृदय को उदार कर दो, या मुझे संसार से उठा लो। इंद्रदत्त इस वक्त न जाने कहाँ होगा। क्यों न उसके पास एक रुक्का भेज दूंँ कि खबरदार, मेरा नाम जाहिर न होने पाये! मैंने इनसे नाहक कह दिया कि चंदा दिया। क्या जानती थी कि यह गुल खिलेगा!"

उसने तुरंत घंटी बजाई, नौकर अंदर आकर खड़ा हो गया। इंदु ने रुक्का लिखा— "प्रिय इंद्र, मेरे चंदे को किसी पर जाहिर मत करना, नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा! मुझे बहुत विवश होकर ये शब्द लिखने पड़े हैं।"

फिर रुक्के को नौकर को देकर बोली—“इद्रदत्त बाबू का मकान जानता है?"

नौकर—"होई तो कहूँ सहरै मैं न? पूछ लेबै!”

इंदु—"शहर में तो शायद उम्र-भर उनके घर का पता न लगे।"

नौकर—"आप चिट्ठी तो दें, पता तो हम लगाउब, लगी न, का कही!"

इंदु—"ताँगा ले लेना, काम जल्दी का है।”

नौकर—"हमार गोड़ ताँगा से कम थोरे हैं। का हम कौनो ताँगा ससुर से कम चलित है।"

इंदु—“बाजार चौक से होते हुए मेरे घर तक जाना। बीस बिस्वे वह तुम्हें मेरे घर ही पर मिलेंगे। इंद्रदत्त को देखा है? पहचानता है न?"

नौकर—'जेहका एक बेर देख लेई, ओहका जनम-भर न भूली। इंदर बाबू का तो सेकरन बेर देखा है।"

इंदु—"किसी को यह खत मत दिखाना।"

नौकर—"कोऊ देखी कसस, पहले ओकी आँख न फोरि डारख?"

इंदु ने रुक्का दिया नौकर लेकर चला गया। तब वह फिर लेट गई और के हो बातें सोचने लगी-"मेरा यह अपमान इन्हीं के कारण हो रहा है। इंद्र अपने दिल में क्या सोचेगा? यही न कि राजा साहब ने इसे डाँटा होगा। मानों मैं लौंडी हूँ, जब चाहते हैं, डॉट बता देते हैं। मुझे कोई काम करने की स्वाधीनता नहीं है। उन्हें अख्त्यार है, जो चाहें, करें। मैं उनके इशारों पर चलने के लिए मजबूर हूँ। कितनी अधोगति है।"

यह सोचते ही वह तेजी से उठी और घंटी बजाई। लौंडी आकर खड़ी हो गई। इंदु बोली—"देख, भीखा चला तो नहीं गया। मैंने उसे एक रुका दिया है। जाकर उससे वह रुका माँग ला। अब न भेजूंगी। चला गया हो, तो किसी को साइकिल पर दौड़ा देना। चौक की तरफ मिल जायगा।"

लैंडी चली गई और जरा देर में भीखा को लिये दुए आ पहुँची। भीखा बोला—"जो छिन-भर और न जात, तो हम घर माँ न मिलित।"

इंदु—"काम तो तुमने जुर्माने का किया है कि इतना जरूरी खत और अभी तक पार में पड़े रहे। लेकिन इस वक्तं यही अच्छा हुआ। वह रुक्का अब न जायगा, मुझे दो।