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रंगभूमि


की तैयारियाँ किये हुए थे। राजा साहब ने बाजी मार ली। अब बतलाओ, वे रुपये क्या हो, जो जुलूस के खर्च के लिए जमा किये गये थे?"

सूरदास—"अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ चुपके से आ गया। नहीं तो सहर-भर में धूमना पड़ता! जुलूस बड़े-बड़े आदमियों का निकलता है कि अंधे भिखारियों का? आप लोगों ने जरोबाना देकर छुड़ा दिया, यही कौन कम धरम किया!"

इंद्रदत्त—"अच्छा बताओ, ये रुपये क्या किये जायँ? तुम्हें दे दूँ?"

सूरदास—"कितने रुपये होंगे?"

इंद्रदत्त—"कोई तीन सौ होंगे।"

सूरदास—"बहुत हैं। इतने में भैरो की दूकान मजे में बन जायगी।"

जगधर को बुरा लगा, बोला—"पहले अपनी झोपड़ी की तो फिकिर करो!"

सूरदास—"मैं इसी पेड़ के नीचे पड़ रहा करूँगा, या पंडाजी के दालान में।"

जगधर—"जिसकी दूकान जली है, वह बनवायेगा, तुम्हें क्या चिंता है "

सूरदास—"जली तो है मेरे ही कारन!"

जगधर—"तुम्हारा घर भी तो जला है?"

सूरदास—"यह भी बनेगा, लेकिन पीछे से। दूकान न बनी, तो भैरो को कितना घाटा होगा! मेरी भीख तो एक दिन भी बंद न होगी।"

जगधर—"बहुत सराहने से भी आदमी का मन बिगड़ जाता है। तुम्हारी भलमनसी का लोग बखान करने लगे, तो अब तुम सोचते होगे कि ऐसा काम करूँ, जिसमें और बड़ाई हो। इस तरह दूसरों की ताली पर नाचना न चाहिए।"

इंद्रदत्त—"सूरदास, तुम इन लोगों को बकने दो, तुम ज्ञानी हो, ज्ञान-पक्ष को मत छोड़ो। ये रुपये तुम्हारे पास रखे जाता हूँ; जो इच्छा हो, करना।"

इंद्रदत्त चला गया, तो सुभागी ने सूरदास से कहा—"उसकी दूकान बनवाने का नाम न लेना।"

सूरदास—"मेरे घर से पहले उसकी दूकान बनेगी। यह बदनामी सिर पर कौन ले कि सूरदास ने भैरो का घर जलवा दिया। मेरे मन में यह बात समा गई है कि हमी में से किसी ने उसकी दूकान जलाई।"

सुभागी—“उससे तुम कितना ही दबो, पर वह तुम्हारा दुसमन ही बना रहेगा। कुत्ते को पूँछ कभी सीधी नहीं होती।"

सूरदास—"तुम दोनों फिर एक हो जाओगे, तब तुझसे पढूंगा।'

सुभागी—"भगवान मार डालें, पर उसका मुँह न दिखावें।"

सूरदास—“मैं कहे देता हूँ, एक दिन तू भैरो के घर की देवी बनेगी।"

सूरदास रुपये लिये हुए भैरो. के घर की ओर चला। भैरो रपट करने जाना तो चाहता था; पर शंका हो रही थी कि कहीं सूरदास की झोपड़ो की भी बात चली, तो क्या जवाब दूंँगा। बार-बार इरादा करके रुक जाता था। इतने में सूरदास को