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रंगभूमि


के समान प्रकाश की रश्मियाँ छिटक रही थीं। गले में मोतियों के हार के सिवा उसके शरीर पर कोई आभूषण न था। ऊषा की शुभ्र छटा मूर्तिमान् हो गई थी।

सोफिया ने उसे एक क्षण-भर देखा, तब बोली-"इंदु, तुम यहाँ कहाँ? आज 'कितने दिनों बाद तुम्हें देखा है?"

इंदु चौंक पड़ी। तीन दिन से बराबर सोफिया को देख रही थी, खयाल आता था 'कि इसे कहीं देखा है; पर कहाँ देखा है, यह याद न आती थी। उसकी बातें सुनते ही स्मृति जाग्रत हो गई, आँखें चमक उठी, गुलाब खिल गया। बोली-“ओहो! सोफी, तुम हो?"

दोनों सखियाँ गले मिल गई। यह वही इंदु थी, जो सोफिया के साथ नैनीताल में पढ़ती थी। सोफिया को आशा न थी कि इंदु इतने प्रेम से मिलेगी। इंदु कभी पिछली बातें याद करके रोती, कभी हँसती, कभी गले मिल जाती। अपनी माँ से उसका गुणा-नुवाद करने लगी। माँ उसका प्रेम देख-देखकर फूली न समाती थी। अंत में सोफिया-ने झेपते हुए कहा-"इंदु, ईश्वर के लिए अब मेरी और ज्यादा तारीफ न करो, नहीं तो मैं तुमसे न बोलूँगी। इतने दिनों तक कभी एक खत भी न लिखा, मुँह-देखे का प्रेम करती हो।"

रानी-"नहीं बेटी सोफी, इंदु मुझसे कई बार तुम्हारी चर्चा कर चुकी है। यहाँ कितने ही रईसों की लड़कियाँ इससे मिलने आती हैं, पर किसी से इसका मन नहीं मिलता, किसी से हँसकर बोलती तक नहीं। तुम्हारे सिवा मैंने इसे किसी की तारीफ करते नहीं सुना।"

इंदु-"बहन, तुम्हारी शिकायत वाजिब है, पर करूँ क्या, मुझे खत ही नहीं लिखना आता। एक तो बड़ी भूल यह हुई कि तुम्हारा पता नहीं पूछा, और अगर पता मालूम भी होता, तो भी मैं खत न लिख सकती। मुझे डर लगता है कि कहीं तुम हँसने न लगो। मेरा पत्र कभी समाप्त ही न होता, और न जाने क्या क्या लिख जाती।"

कुँवर साहब को मालूम हुआ कि सोफिया बातें कर रही है, तो वह भी उसे धन्यवाद देने के लिए आये। पूरे छः फीट के मनुष्य थे, बड़ी-बड़ी आँखें, लंबे बाल, लंबी दाढ़ी, मोटे कपड़े का एक नीचा कुरता पहने हुए थे। सोफिया ने ऐसा तेजस्वी स्वरूप कभी न देखा था। उसने अपने मन में ऋषियों की जो कल्पना कर रखी थी, वह बिलकुल ऐसी ही थी। इस दिशाल शरीर में बैठी हुई विशाल आत्मा दोनों नेत्रों से ताक रही थी। सोफ़ी ने सम्मान-भाव से उठना चाहा; पर कुँवर साहब मधुर, सरल स्वर में बोले-"बेटी, लेटी रहो, तुम्हें उठने में कष्ट होगा। लो, मैं बैठ जाता हूँ, तुम्हारे पापा से मेरा परिचय है, पर क्या मालूम था कि तुम मि सेवक की बेटी हो। मैंने उन्हें बुलाया है, लेकिन मैं कहे देता हूँ, मैं अभी तुम्हें न जाने दूँगा। यह कमरा अब तुम्हारा है, और यहाँ से चले जाने पर भी तुम्हें एक बार यहाँ नित्य आना पड़ेगा। (रानी से) जाह्नवी, यहाँ प्यानो मँगवाकर रख दो। आज मिस सोहराबजी को बुलवाकर