सोफिया का एक तैल-चित्र खिंचवाओ। सोहराबजी ज्यादा कुशल हैं; पर में नहीं चाहता कि सोफिया को उनके सामने बैठना पड़े। वह चित्र हमें याद दिलाता रहेगा कि किसने महान् संकट के अवसर पर हमारी रक्षा की।"
रानी-"कुछ नाज भी दान करा दूँ?"
यह कहकर रानी ने डॉक्टर गंगुली की ओर देखकर आँखें मटकाई। कुँवर साहब तुरंत बोले-"फिर वही ढकोसले! इस जमाने में जो दरिद्र है, उसे दरिद्र होना चाहिए; जो भूखों मरता है, उसे भूखों मरना चाहिए; जब घंटे-दो घंटे की मिहनत से खाने भर को मिल सकता है, तो कोई सबब नहीं कि क्यों कोई आदमी भूखों मरे। दान ने हमारी जाति में जितने आलसी आदमी पैदा कर दिये हैं, उतने सब नशों ने मिलकर भी न पैदा किये होंगे। दान का इतना महत्त्व क्यों रखा गया, यह मेरी समझ में नहीं आता।"
रानी-"ऋषियों ने भूल की कि तुमसे सलाह न ले ली।”
कुँवर-"हाँ, मैं होता, तो साफ कह देता-आप लोग यह आलस्य, कुकर्म और अनर्थ का बीज बो रहे हैं। दान आलस्य का मूल है, और आलस्य सब पापों का मूल है। इसलिए दान ही सब पापों का मूल है, कम-से-कम पोषक तो अवश्य ही है। दान नहीं, अगर जी चाहता हो, तो मित्रों को एक भोज दे दो।"
डॉक्टर गंगुली-"सोफिया, तुम राजा साहब का बात सुनता है? तुम्हारा प्रभु मसीह तो दान को सबसे बढ़कर महत्त्व देता है, तुम कुँवर साहब से कुछ नहीं कहता?"
सोफिया ने इंदु की ओर देखा, और मुस्किराकर आँखें नीची कर लीं, मानों कहा रही थी कि मैं इनका आदर करती हूँ, नहीं तो जवाब देने में असमर्थ नहीं हूँ।
सोफिया मन-ही-मन इन प्राणियों के पारस्परिक प्रेम की तुलना अपने घरवालों से कर रही थी। आपस में कितनी मुहब्बत है। माँ-बाप दोनों इंदु पर प्राण देते हैं। एक मैं अभागिनी हूँ कि कोई मुँह भी नहीं देखना चाहता। चार दिन यहाँ पड़े हो गये, किसी ने खबर तक न ली। किसी ने खोज ही न की होगी। अम्माँ ने तो समझा होगा, कहीं डूब मरी। मन में प्रसन्न हो रही होंगी कि अच्छा हुआ, सिर से बला टल्ली। मैं ऐसे सहृदय प्राणियों में रहने योग्य नहीं हूँ। मेरी इनसे क्या बराबरी!
यद्यपि यहाँ किसी के व्यवहार में दया की झलक भी न थी, लेकिन सोफिया को उन्हें अपना इतना आदर-सत्कार करते देखकर अपनी दीनावस्था पर ग्लानि होती थी। इंदु से भी शिष्टाचार करने लगी। इंदु उसे प्रेम से 'तुम' कहती थी; पर वह उसे 'आप' कहकर संबोधित करती थी।
कुँवर साहब कह गये थे, मैंने मि० सेवक को सूचना दे दी है, वह आते ही होंगे। सोफिया को अब यह भय होने लगा कि कहीं वह आ न रहे हों। आते-ही-आते मुझे अपने साथ चलने को कहेंगे। मेरे सिर फिर वही विपत्ति पड़ेगी। इंदु से अपनी विपत्ति-कथा कहूँ, तो शायद उसे मुझसे कुछ सहानुभूति हो। यह मौकरानी यहाँ व्यर्थ ही बैठी हुई है। इंदु आई भी, तो उससे कैसे बातें करूँगी। पापा के आने के पहले एक बार