पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/३९०

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फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगी। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्रायः मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मुहल्ले में मकान ले-लेकर रहने लगे। पाँडेपुर छोटी-सी बस्ती तो थी ही, वहाँ इतने मकान कहाँ थे, नतीजा यह हुआ कि मुहल्लेवाले किराये के लालच से परदेशियों को अपने-अपने घरों में ठहराने लगे! कोई परदे की दीवार खिंचवा लेता था, कोई खुद झोपड़ा बनाकर उसमें रहने लगता और मकान भड़तों को दे देता। भैरो ने लकड़ी की दूकान खोल ली थी। वह अपनी माँ के साथ वहीं रहने लगा, अपना घर किराये पर दे दिया। ठाकुरदीन ने अपनी दूकान के सामने एक टट्टी लगाकर गुजर करना शुरू किया, उसके घर में एक ओवरसियर आ डटे। जगधर सबसे लोभी था, उसने सारा मकान उठा दिया और आप एक फूस के छप्पर में निर्वाह करने लगा। नायकराम के बरामदे में तो नित्य एक बरात ठहरती थी। यहाँ तक लोभ ने लोगों को घेरा कि बजरंगी ने भी मकान का एक हिस्सा उठा दिया। हाँ, सूरदास ने किसी को नहीं टिकाया। वह अपने नये मकान में, जो इंदुरानी के गुप्तदान से बना था, सुभागी के साथ रहता था। सुभागी अभी तक भैरो के साथ रहने पर राजी न हुई थी। हाँ, भैरो की आमद रफ्त अब सूरदास के घर अधिक रहती थी।

कारखाने में अभी मशीनें न गड़ी थीं, पर उसका फैलाव दिन-दिन बढ़ता जाता था। सूरदास की बाकी पाँच बीघे जमीन भी उसी धारा के अनुसार मिल के अधिकार में आ गई। सूरदास ने सुना, तो हाथ मलकर रह गया। पछताने लगा कि जाम साहब ही से क्यों न सौदा कर लिया! पाँच हजार देते थे। अब बहुत मिलेंगे, दो-चार सौ रुपये मिल जायँगे। अब कोई आंदोलन करना उसे व्यर्थं मालूम होता था। जब पहले ही कुछ न कर सका, तो अबकी क्या कर लूँगा। पहले ही यह शंका थी, वह पूरी हो गई।

दोपहर का समय था। सूरदास एक पेड़ के नीचे बैठा झपकियाँ ले रहा था कि इतने में तहसील के एक चपरासी ने आकर उसे पुकारा और एक सरकारी परवाना दिया।

सूरदास समझ गया कि हो-न-हो जमीन ही का कुछ झगड़ा है। परवाना लिये हुए मिल में आया कि किसी बाबू से पढ़वाये। मगर कचहरी की सुबोध लिपि बाबुओं से क्या चलती! कोई कुछ न बता सका। हारकर लौट रहा था कि प्रभु सेवक ने देख लिया। तुरंत अपने कमरे में बुला लिया और परवाने को देखा। लिखा हुआ था-अपनी जमीन के मुआवजे के १०००) रुपये तहसील में आकर ले जाओ।

सूरदास—“कुल एक हजार है?"

प्रभु सेवक—"हाँ, इतना ही तो लिखा है।"