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रंगभूमि


है, जो कहे कि मैं गंगाजल हूँ। जब बड़े-बड़े साधू-संन्यासी माया-मोह में फंसे हुए हैं, तो हमारी-तुम्हारी क्या बात है! हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत ही जाय, तो क्या हाथ आयेगा। खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे, पर हार से घबराये नहीं, ईमान को न छोड़े। जीतकर इतना न इतराये कि अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार-जीत तो जिंदगानी के साथ है। हाँ, एक सलाह की बात कहता हूँ। तुम ताड़ी की दूकान छोड़कर कोई दूसरा रोजगार क्यों नही करते।”

भैगे—“जो कहो, वह करूँ। यह रोजगार है खराब। रात-दिन जुआरी, चोर, बदमास आदमियों का ही साथ रहता है। उन्हीं की बातें सुनो, उन्हीं के ढंग सीखो। अब मुझे मालूम हो रहा है कि इसी रोजगार ने मुझे चौपट किया। बताओ, क्या करूँ?"

सूरदास—“लकड़ी का रोजगार क्यों नहीं कर लेते? बुरा नहीं है। आजकल यहाँ परदेसी बहुत आयेंगे, बिक्री भी अच्छी होगी। जहाँ ताड़ी की दूकान थी, वहीं एक बाड़ा बनवा दो और इन रुपयों से लकड़ी का काम करना सुरू कर दो।"

भैरो—“बहुत अच्छी बात है। मगर ये रुपये अपने ही पास रखो। मेरे मन का क्या ठिकाना। रुपये पाकर कोई और बुराई न कर बैठू। मेरे-जैसे आदमी को तो कभी आधे पेट के सिवा भोजन न मिलना चाहिए। पैसे हाथ में आये, और सनक सवार हुई।"

सूरदास—"मेरे घर न द्वार, रखूँगा कहाँ?"

भैरो—'इससे तुम अपना घर बनवा लो।"

सूरदास—"तुम्हें लकड़ी की दुकान से नफा हो, तो बनवा देना।"

भैरो—"सुभागी को समझा दो।"

सूरदास—"समझा दूंगा।"

सूरदास चला गया। भैरो घर गया, तो बुढ़िया बोली-"तुझसे मेल करने आया था न?”

भैरो—“हाँ, क्यों न मेल करेगा, मैं बड़ा लाट हूँ न! बुढ़ापे में तुझे और कुछ नहीं सूझता। यह आदमी नहीं, साधू है!"


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