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रंगभूमि


जब वह उस प्राणी के मुख से निकले, जो हमारे जीवन को बना या बिगाड़ सकता है। प्रभु सेवक को मानों काली नागिन ने डस लिया, जिसके काटे को लहर भी नहीं आती, उनकी सोई हुई लज्जा जाग उठी। अपनी अधोगति का ज्ञान हुआ। कुँवर साहब के यहाँ जाने को तैयार थे, गाड़ी तैयार कराई थी; पर वहाँ न गये। आकर अपने कमरे में बैठ गये। उनकी आँखें भर आई, इस वजह से नहीं कि मैं इतने दिनों तक भ्रम में पड़ा रहा, बल्कि इस ख्याल से कि पिताजी को मेरा पालन-पोषण अखरता है-यह लताड़ पाकर मेरे लिए डूब मरने की बात होगी, अगर मैं उनका आश्रित बना रहूँ। मुझे स्वयं अपनी जीविका का प्रश्न हल करना चाहिए। इन्हें क्या मालूम नहीं था कि मैं प्रथाओं से विवश होकर ही इस विलास-वासना में पड़ा हुआ हूँ? ऐसी दशा में इनका मुझे ताना देना घोर अन्याय है। इतने दिनों तक कृत्रिम जीवन व्यतीत करके अब मेरे लिए अपना रूपांतर कर लेना असंभव है। यही क्या कम है कि मेरे मन में ये विचार पैदा हुए। इन विचारों के रहते हुए कम-से-कम मैं औरों की भाँति स्वार्थीध और धन-लोलुप तो नहीं हो सकता। लेकिन मैं व्यर्थ इतना खेद कर रहा हूँ। मुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि पापा ने वह काम कर दिया, जो सिद्धांत और विचार से न हुआ था। अब मुझे उनसे कुछ कहने-सुनने की जरूरत नहीं। उन्हें शायद मेरे जाने से दुःख भी न होगा, उन्हें खूब मालूम हो गया है कि मेरी जात से उनकी धन-तृष्णा तृप्त नहीं हो सकती। आज यहाँ से डेरा कूच है, यही निश्चय है। चलकर कुँवर साहब से कहता हूँ, मुझे भी स्वयंसेवकों में ले लीजिए। कुछ दिनों उस जीवन का आनंद भी उठाऊँ। देखू, मुझमें और भी कोई योग्यता है, या केवल पद्य-रचना ही कर सकता हूँ। अब गिरि-शृगों की सैर करूँगा, देहातों में घूमूंगा, प्राकृतिक सौंदर्य की उपासना करूँगा, नित्य नया दाना, नया पानी, नई सैर, नये दृश्य। इससे ज्यादा आनंदप्रद और कौन जीवन हो सकता है। कष्ट भी होंगे, धूप है, वर्षा है, सरदी है, भयंकर जंतु हैं ; पर कष्टों से मैं कभी भयभीत नहीं हुआ। उलझन तो मुझे गृहस्थी के झंझटों से होती है। यहाँ कितने अपमान सहने पड़ते हैं। रोटियों के लिए दूसरों की गुलामी! अपनी इच्छाओं को पराधीन बना देना ! नौकर अपने स्वामी को देखकर कैसा दबक जाता है, उसके मुख मंडल पर कितनी दीनता, कितना भय छा जाता है! न, मैं अपनी स्वतंत्रता की अब से ज्यादा इजत करना सीखूँगा।"

दोपहर को जब घर के सब प्राणी पंखों के नीचे आराम से सोये, तो प्रभु सेवक ने चुपके से निकलकर कुँवर साहब के भवन का रास्ता लिया। पहले तो जी में आया कि कपड़े उतार दूँ और केवल एक कुरता पहनकर चला जाऊँ। पर इन फटे हालों घर से कभी न निकला था। वस्त्र-परिवर्तन के लिए कदाचित् विचार-परिवर्तन से भी अधिक नैतिक बल की जरूरत होती है। उसने केवल अपनी कविताओं की कापी ले ली और चल खड़ा हुआ। उसे जरा भी खेद न था, जरा भी ग्लानि न थी। ऐसा खुश था, मानों कैद से छूटा है—"आप लोगों को अपनी दौलत मुबारक हो। पापा ने मुझे बिल