कुल निर्लज, आत्मसम्मान-हीन, विलास-लोलुप समझ रखा है, तभी तो जरा-सी बात पर उबल पड़े। अब उन्हें मालूम हो जायगा कि मैं बिलकुल मुरदा नहीं हूँ।"
कुँवर साहब दोपहर को सोने के आदी नहीं थे। फर्श पर लेटे कुछ सोच रहे थे। प्रभु सेवक जाकर बैठ गये। कुँवर साहब ने कुछ न पूछा, कैसे आये, क्यों उदास हो? आध घंटे तक बैठे रहने के बाद भी प्रभु सेवक को उनसे अपने विषय में कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी, कोई भूमिका ही न सूझती थी-“यह महाशय आज सुम-गुम क्यों हैं? क्या मेरी सूरत से ताड़ तो नहीं गये कि कुछ स्वार्थ लेकर आया है? यों तो मुझे देखते ही खिल उठते थे, दौड़कर छाती से लगा लेते थे, आज मुखातिब ही नहीं होते। परमुखापेक्षी होने का यही दंड है। मैं भी घर से चला, तो ठीक दोपहर को, जब चिड़ियाँ तक घोंसले से नहीं निकलतीं। आना ही था, तो शाम को आता। इस जलती हुई धूप में कोई गरज का बावला हो घर से निकल सकता है। खैर, यह पहला अनुभव है।" वह निराश होकर चलने के लिए उठे कि भरतसिंह बोले-"क्यों-क्यों, जल्दी क्या है? क्या इसीलिए कि मैंने बातें नहीं की? बातों की कमी नहीं है; इतनी बातें तुमसे करनी हैं कि समझ में नहीं आता, शुरू क्योंकर करूँ! तुम्हारे विचार में विनय ने रियासत का पक्ष लेने में भूल की?"
प्रभु सेवक ने द्विविधा में पड़कर कहा—"इस पर भिन्न-भिन्न पहलुओं से विचार किया जा सकता है।"
कुँवर—"इसका आशय यह है कि बुरा किया। उसकी माता का भी यही विचार है। वह तो इतनी चिढ़ी हुई हैं कि उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहतीं। लेकिन मेरा विचार है कि उसने जिस नीति का अनुसरण किया है, उस पर उसे लजित होने का कोई कारण नहीं। कदाचित् उन दशाओं में मैं भी यही करता। सोफी से उसे प्रेम न होता, तो भी उस अवसर पर जनता ने जो विद्रोह किया, वह उसके साम्यवाद के सिद्धान्तों को हिला देने को काफी था। पर जब यह सिद्व है कि सोफिया का अनुराग उसके रोग-रोम में समाया हुआ है, तो उसका आचरण क्षम्य ही नहीं, सर्वथा स्तुत्य है। वह धर्म केवल जत्थेबन्दी है, जहाँ अपनी बिरादरी से बाहर विवाह करना वर्जित हो, क्योंकि इससे उसकी क्षति होने का भय है। धर्म और ज्ञान दोनों एक हैं, और इस दृष्टि से संसार में केवल एक धर्म है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, बौद्ध, ये धर्म नहीं हैं, भिन्न-भिन्न स्वाथों के दल हैं, जिनसे हानि के सिवा आज तक किसी को लाभ नहीं हुआ। अगर विनय इतना भाग्यवान् हो कि सोफिया को विवाह-सूत्र में बाँध सके, तो कम-से-कम मुझे जरा भी आपत्ति न होगी।”
प्रभु सेवक—"मगर आप जानते हैं, इस विषय में रानीजी को जितना दुराग्रह है, उतना ही मामा को भी है।"
कुँवर—"इसका फल यह होगा कि दोनों का जीवन नष्ट हो जायगा। ये दोनों अमूल्य रत्न धर्म के हाथों मिट्टी में मिल जायँगे।"