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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४०३

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रंगभूमि


लेकिन उसकी वर्तमान दशा देखकर मुझे अब उस पर विश्वास नहीं रहा। मैं चाहता हूँ, इस संस्था को ऐसी सुव्यवस्थित दशा में छोड़ जाऊँ कि यह निर्विघ्न अपना काम करती रहे। ऐसा न हुआ, तो मैं शांति से प्राण भी न त्याग सकूँगा। तुम्हारे ऊपर मुझे भरोसा है, क्योंकि तुम निस्स्वार्थ हो। प्रभु, मैंने अपने जीवन का बहुत दुरुपयोग किया है। अब पीछे फिरकर उस पर नजर डालता हूँ, तो उसका कोई भाग ऐसा नहीं दिखाई देता, जिस पर गर्व कर सकूँ। एक मरुस्थल है, जहाँ हरियाली का निशान नहीं। इस संस्था पर मेरे जीवन-पर्यन्त के दुष्कृत्यों का बोझ लदा हुआ है। यही मेरे प्रायश्चित्त का साधन और मेरे मोक्ष का मार्ग है। मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा यही है कि मेरा सेवक-दल संसार में कुछ कर दिखाये, उसमें सेवा का अनुराग हो, बलिदान का प्रेम हो, जातीय गौरव का अभिमान हो। जब मैं ऐसे प्राणियों को देश के लिए प्राण-समर्पण करते हुए देखता हूँ, जिनके पास प्राण के सिवा और कुछ नहीं है, तो मुझे अपने ऊपर रोना आता है कि मैंने सब कुछ रखते हुए भी कुछ न किया। मेरे लिए इससे घातक और कोई चोट नहीं है कि यह संस्था विफल-मनोरथ हो। मैं इसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हूँ। मैंने दस लाख रुपये इस खाते में जमा कर दिये हैं और इच्छा है कि इस पर प्रतिवर्ष १ लाख और बढ़ाता जाऊँ। इतने विशाल देश के लिए १०० सेवक बहुत कम हैं। कम-से-कम ५०० आदमी होने चाहिए। अगर दस साल भी और जीवित रहा, तो शायद मेरी यह मनो-कामना पूरी हो जाय। इंद्रदत्त में और सब गुण तो हैं, पर वह उदंड स्वभाव का आदमी है। इस कारण मेरा मन उस पर नहीं जमता। मैं तुमसे साग्रह......"

डॉक्टर गंगुली आ पहुँचे, और प्रभु सेवक को देखकर बोले-"अच्छा, तुम यहाँ कुँबर साहब को मंत्र दे रहा है, तुम्हारा पाना महेंद्रकुमार को पट्टी पढ़ा रहा है। पर मैंने साफ-साफ कह दिया कि ऐसा बात नहीं हो सकता। तुम्हारा मील है, उसका हानि-लाभ तुमको और तुम्हारे हिस्सेदारों को होगा, गरीबों को क्यों उनके घर से निकालता है; पर मेरी कोई नहीं सुनता। हम कड़वा बात कहता है न, वह काहे को अच्छा लगेगा। मैं काउंसिल में इस पर प्रश्न करूँगा। यह कोई बात नहीं है कि आप लोग अपने स्वार्थ के लिए दूसरों पर अन्याय करें। शहर का रईस लोग हमसे नाराज हो जायगा, हमको परवा नहीं है! हम तो वहाँ वही करेगा, जो हमारा आत्मा कहेगा। तुमको दूसरे किसिम का आदमी चाहिए, तो बाबा, हम से इस्तीफा ले लो। पर हम पाँड़ेपुर को उजड़ने न देगा।"

कुँवर—"यह बेचारे तो खुद उस प्रस्ताव का विरोध करते हैं। आज इसी बात पर पिता और पुत्र में मनमुटाव भी हो गया है। यह घर से चले आये हैं ओर कारखाने से कोई संपर्क नहीं रखना चाहते।”

गंगुली—"अच्छा, ऐसा बात है। बहुत अच्छा हुआ। ऐसा विचारवान् लोग मील का काम नहीं कर सकता। ऐसा लोग मील में जायगा, तो हम लोग कहाँ से आदमी