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रंगभूमि


दूंँगा। मैंने कहा, जाइए, समझ लीजिएगा। तो अब आपका क्या हुकुम है? ये सब रुपये अभी तक मेरे पास रखे हुए हैं, आपको दे दूँ न? मुझे तो आज मालूम हुआ कि वे लोग आपके साथ दगा कर गये!"

कुल्सूम ने कहा—"नुदा तुम्हें इस नेकी का सवाब देगा। मगर ये रुपये जिसके हों, उन्हें लौटा दो। मुझे इनकी जरूरत नहीं है।"

चौधरी—"कोई न लौटायेगा।"

कुल्सूम—"तो तुम्ही अपने पास रखो।"

चौधरी—"आप लेती क्यों नहीं? हम कोई औसान थोड़े ही जताते हैं। खाँ साहब की बदौलत बहुत कुछ कमाया है, दूसरा मुंसी होता, तो हजारों रुपये नजर ले लेता।

यह उन्हीं की नजर समझी जाय।”

चौधरी ने बहुत आग्रह किया, पर कुल्सूम ने रुपये न लिये। वह माहिरअली को दिखाना चाहती थी कि जिन रुपयों के लिए तुम कुत्तों की भाँति लपकते थे, उन्हीं रुपयों को मैंने पैर से ठुकरा दिया। मैं लाख गई-गुजरी हूँ, फिर भी मुझमें कुछ गैरत बाकी है, तुम मर्द होकर बेहयाई पर कमर बाँधे हुए हो।

चौधरी यहाँ से चला, तो सुभागी से बोला-"यही बड़े आदमियों की बातें हैं। चाहे टुकड़े-टुकड़े उड़ जायँ, मुदा किसी के सामने हाथ न पसारेंगी। ऐसा न होता, तो छोटे-बड़े में फरक ही क्या रहता! धन से बड़ाई नहीं होती, धरम से होती है।"

इन रुपयों को लौटाकर कुल्सूम का मस्तक गर्व से उन्नत हो गया। आज उसे पहली बार ताहिरअली पर अभिमान हुआ-"यह इज्जत है कि पीठ-पीछे दुनिया बड़ाई करती रहे। उस बेइज्जती से तो मर जाना ही अच्छा कि छोटे-छोटे आदमी मुँह पर लताड़ सुनायें। कोई लाख उनके एहसान को मिटाये, पर दुनिया तो इंसाफ करती है। रोज ही तो अमले सजा पाते रहते हैं। कोई तो उनके बाल-बच्चों की बात नहीं पूछता। बल्कि उलटे और लोग ताने देते हैं। आज उनकी नेकनामी ने मेरा सिर ऊँचा कर दिया।"

सुभागी ने कहा—"बहुजी, बहुत औरतें देखीं, लेकिन तुम-जैसी धीरजवाली बिरली ही कोई होगी। भगवान तुम्हारा संकट हरें।"

वह चलने लगी, तो कई अमरूद बच्चों के लिये रख दिये।

कुल्सूम ने कहा—'मेरे पास पैसे नहीं हैं।"

सुभागी मुस्किराकर चली गई।


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