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रंगभूमि


पिरोना जानती थी, चाहती, तो सिलाई करके अपना निर्वाह कर लेती; पर जलन के मारे कुछ न करती थी। वह माहिर के मुँह में कालिख लगाना चाहती थी, चाहती थी कि दुनिया मेरी दशा देखे और इन पर थूके। उसे अब ताहिरअली पर भी क्रोध आता था-"तुम इसी लायक थे कि जेल में पड़े-पड़े चक्की पीसो। अब आँखें खुलेंगी। तुम्हें दुनिया के हँसने की फिक्र थी। अब दुनिया किसी पर नहीं हँसती! लोग मजे से मीठे लुकमे उड़ाते और मीठी नींद सोते हैं। किसी को तो नहीं देखती कि झूठ भी इन मतलब के बंदों की फजीहत करे। किसी को गरज ही क्या पड़ी है कि किसी पर हँसे। लोग समझते होंगे, ऐसे कमसमझों, लाज पर मरनेवालों की यही सजा है।"

इस भाँति एक महीना गुजर गया। एक दिन सुभागी कुल्सूम के यहाँ साग-भाजी लेकर आई। वह अब यही काम करती थी। कुल्सूम की सूरत देखी, तो बोली-"बहूजी, तुम तो पहचानी ही नहीं जातीं। क्या कुढ़-कुढ़कर जान दे दोगी? बिपत तो पड़ ही गई है, कुढ़ने से क्या होगा? मसल है, आँधी आये, बैठ गँवाये। तुम न रहोगी, तो बच्चों को कौन पालेगा? दुनिया कितनी जल्द अंधी हो जाती है! बेचारे खाँ साहब इन्हीं लोगों के लिए मरते थे। अब कोई बात भी नहीं पूछता। घर-घर यही चर्चा हो रही है कि इन लोगों को ऐसा न करना चाहिए था। भगवान् को क्या मुँह दिखायेंगे!"

कुल्सूम—"अब तो भाड़ लीपकर हाथ काला हो गया।"

सुभागी—"बहू, कोई मुँह पर न कहे, लेकिन सब थुड़ी-थुड़ी करते हैं। बेचारे नन्हे-नन्हे बालक मारे-मारे फिरते हैं, देखकर कलेजा फट जाता है। कल तो चौधरी ने माहिर मियाँ को खूब आड़े हाथों लिया था।"

कुसूम को इन बातों से बड़ी तस्कीन हुई। दुनिया इन लोगों को थूकती तो है, इनकी निंदा तो करती है, इन बेहयाओं को लाज ही न हो, तो कोई क्या करे। बोली- "किस बात पर?”

सुभागी कुछ जवाब न देने पाई थी कि बाहर से चौधरी ने पुकारा। सुभागी ने जाकर पूछा—"क्या कहते हो?"

चौधरी—"बहूजी से कुछ कहना है। जरा परदे की आड़ में खड़ी हो जायँ।" दोपहर का समय था। घर में सन्नाटा छाया हुआ था। जैनब और रकिया किसी औलिया के मजार पर शीरीनी चढ़ाने गई थीं। कुल्सूम परदे की आड़ में आकर खड़ी हो गई।

चौधरी—"बहूजी, कई दिन से आना चाहता था, पर मौका ही न मिलता था। जब आता, तो माहिर मियाँ को बैठे देखकर लौट जाता था। कल माहिर मियाँ मुझसे कहने लगे, तुमने भैया की मदद के लिए जो रुपये जमा किये थे, वे मुझे दे दो, भाभी ने माँगे हैं। मैंने कहा, जब तक बहूजी से खुद न पूछ लूँगा, आपको न दूंँगा। इस पर बहुत बिगड़े। कच्ची-पक्की मुँह से निकालने लगे—समझ लूँगा, बड़े घर भिजवा