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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४४

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रंगभूमि


और सब कामों के लिए फुर्सत है। अगर फुर्सत नहीं है, तो सिर्फ यहाँ आने की। मैं तुम्हें चिताये देती हूँ, किसी देश-सेवक से विवाह न करना, नहीं तो पछताओगी। तुम उसके अवकाश के समय की मनोरंजन-सामग्री-मात्र रहोगा।"

सोफिया--"मैं तो पहले ही अपना मत स्थिर कर चुकी; सबसे अलग-ही-अलग रहना चाहती हूँ, जहाँ मेरी स्वाधीनता में बाधा डालनेवाला कोई न हो। मैं सत्पथ पर रहूँगी, या कुपथ पर चलूँगी, यह जिम्मेदारी भी अपने ही सिर लेना चाहती हूँ। मैं बालिग हूँ, और अपना नफा-नुकसान देख सकती हूँ। आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती; क्योंकि रक्षा का अर्थ पराधीनता के सिवा और कुछ नहीं।"

इंदु—"क्या तुम अपने मामा और पापा के अधीन नहीं रहना चाहती?"

सोफिया--"न, पराधीनता में प्रकार का नहीं, केवल मात्राओं का अंतर है।"

इंदु—"तो मेरे ही घर क्यों नहीं रहतीं? मैं इसे अपना सौभाग्य समझूगी। और अम्माँजी तो तुम्हें आँखों की पुतली बनाकर रखेंगी। मैं चली जाती हूँ, तो वह अकेले घबराया करती हैं। तुम्हें पा जायँ, तो फिर गला न छोड़ें। कहो, तो अम्माँ से कहूँ। यहाँ तुम्हारी स्वाधीनता में कोई दखल न देगा। बोलो, कहूँ जाकर अम्माँ से?”

सोफिया—"नहीं, अभी भूलकर भी नहीं। आपकी अम्माँजी को जब मालूम होगा कि इसके माँ-बाप इसकी बात नहीं पूछते, तो मैं उनकी आँखों से भी गिर जाऊँगो। जिसको अपने घर में इजत नहीं, उसको बाहर भी इजत नहीं होती।"

इंदु-"नहीं सोफी, अम्माँजी का स्वभाव बिल्कुल निराला है। जिस बात से तुम्हें अपने निरादर का भय है, वही बात अम्माजी के आदर की वस्तु है, वह स्वयं अपनी माँ से किसी बात पर नाराज हो गई थीं, तब से मैके नहीं गई। नानी मर गई; पर अम्माँ ने उन्हें क्षमा नहीं किया। सैकड़ों बुलावे आये; पर उन्हें देखने तक न गई। उन्हें ज्योंही यह बात मालूम होगो, तुम्हारी दूनी इज्जत करने लगेंगी।”

सोफो ने आँखों में आँसू भरकर कहा—'बहन, मेरी लाज अब आप ही के हाथ है।" इंदु ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर कहा-“वह मुझे अपनी लाज से कर प्रिय नहीं है।" उधर मि० जॉन सेक्क को कुँवर साहब का पत्र मिला, तो जाकर स्त्री से बोले- "देखा, मैं कहता न था कि सोफी पर कोई संकट आ पड़ा। यह देखो, कुँवर भरतसिंह का पत्र है। तीन दिनों से उनके घर पड़ी हुई है। उनके एक झोपड़े में आग लग गई थी, वह भी उसे बुझाने लगी। कहीं लपट में आ गई।"

मिसेज सेवक—"ये सब बहाने हैं। मुझे उसकी किसी बात पर विश्वास नहीं रहा। जिसका दिल खुदा से फिर गया, उसे झूठ बोलने का क्या डर? यहाँ से बिगड़कर गई थी, समझा होगा, घर से निकलते ही फूलों की सेज बिछी हुई मिलेगी। जब कहीं शरण न मिली तो यह पत्र लिखवा दिया। अब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। यह भी संभव है, खुदा ने उसके अविचार का यह दंड दिया हो।"