मि० जॉन सेवक-"चुप भी रहो, तुम्हारी निर्दयता पर मुझे आश्चर्य होता है। मैंने तुम जैसी कठोर-हृदया स्त्री नहीं देखी।"
मिसेज़ सेवक-"मैं तो नहीं जाती। तुम्हें जाना हो, तो जाओ।"
जॉन सेवक-"मुझे तो देख रही हो, मरने की फुरसत नहीं है। उसी पाँड़ेपुरवाली जमीन के विषय में बातचीत कर रहा हूँ। ऐसे मूजी से पाला पड़ा है कि किसी तरह चंगुल ही में नहीं आता। देहातियों को जो लोग सरल कहते हैं, बड़ी भूल करते हैं। इनसे ज्यादा चालाक आदमी मिलना मुश्किल है। तुम्हें इस वक्त कोई काम नहीं है, मोटर मँगवाये देता हूँ, शान से चली जाओ, और उसे अपने साथ लेती आओ।"
ईश्वर सेवक वहीं आराम-कुरसी पर आँखें बंद किये ईश्वर-भजन में मग्न बैठे थे। जैसे बहरा आदमी मतलब की बात सुनते ही सचेत हो जाता है, मोटरकार का जिक्र सुनते ही ध्यान टूट गया। बोले-"मोटरकार की क्या जरूरत है? क्या दस-पाँच रुपये काट रहे हैं? यों उड़ाने से तो कारूँ का खजाना भी काफी न होगा। क्या गाड़ी पर जाने से शान में फर्क आ जायगा? तुम्हारी मोटर देखकर कुँवर साहब रोब में न आयेंगे, उन्हें नुदा ने बहुतेरी मोटरें दी हैं। प्रभु, दास को अपनी शरण में लो, अब देर न करो, मेरी सोफी बेचारी वहाँ बेगानों में पड़ी हुई है, न जाने इतने दिन किस तरह काटे होंगे। खुदा उसे सच्चा रास्ता दिखाये। मेरी आँखें उसे ढूँढ़ रही हैं। जब से वह गई है, कलामे-पाक सुनने की नौबत नहीं आई। ईसू , मुझ पर सायां कर। वहाँ उस बेचारी का कौन पुछत्तर होगा, अमीरों के घर में गरीबों का कहाँ गुजर!"
जॉन सेवक—"अच्छा ही हुआ, यहाँ होती, तो रोजाना डॉक्टर की फीस न देनी पड़ती?"
ईश्वर सेवक—"डॉक्टर का क्या काम था। ईश्वर की दया से मैं खुद थोड़ी-बहुत डॉक्टरी कर लेता हूँ। घरवालों का स्नेह डॉक्टर की दवाओं से कहीं ज्यादा लाभदायक होता है। मैं अपनी बच्ची को गोद में लेकर कलामे-पाक सुनाता, उसके लिए खुदा से दुआ माँगता।"
मिसेज सेवक—"तो आप ही चले जाइए!"
ईश्वर सेवक—"सिर और आँखों से; मेरा ताँगा मँगवा दो। हम सबों को चलना चाहिए। भूले-भटके को प्रेम ही सन्मार्ग पर लाता है। मैं भी चलता हूँ। अमीरों के सामने दीन बनना पड़ता है। उनसे बराबरी का दावा नहीं किया जाता।”
जॉन सेवक— "मुझे अभी साथ न ले जाइए, मैं किसी दूसरे अवसर पर जाऊँगा। इस वक्त वहाँ शिष्टाचार के सिवा और कोई काम न होगा। मैं उन्हें धन्यवाद दूँगा, वह मुझे धन्यवाद देंगे। मैं इस परिचय को दैवी प्रेरणा समझता हूँ। इतमीनान से मिलूँगा। कुँवर साहब का शहर में बहुत दबाव है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान उनके दामाद हैं। उनकी सहायता से मुझे पाँडेपुरवाली जमीन बड़ी आसानी से मिल जायगी। संभव है, वह कुछ हिस्से भी खरीद लें। मगर आज इन बातों का मौका नहीं है।"