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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४५४

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रंगभूमि

सोफी-“मुझे कुछ हुआ थोड़े ही है, मैं तो अपने पूर्व-जन्म की बात याद कर रही हूँ। मुझे ऐसा याद आता है कि तुम मुझे झोपड़े में अकेली छोड़कर अपनी नाव पर कहीं परदेश चले गये थे और मैं नित्य नदी के तीर बैठी हुई तुम्हारी राह देखती थी, पर तुम न आते थे।।"

विनय-"सोफिया, मुझे भय हो रहा है कि तुम्हारा जी अच्छा नहीं है। रात बहुत हो गई है, अब सो जाओ।"

सोफी-"मेरा तो आज यहाँ से जाने को जी नहीं चाहता। क्या तुम्हें नींद आ रही है? तो सोओ, मैं बैठी हूँ, जब तुम सो जाओगे, मैं चली जाऊँगी।"

एक क्षण बाद फिर बोली-"मुझे न जाने क्यों संशय हो रहा है कि तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे। सच बताओ, क्या तुम मुझे छोड़ जाओगे?"

विनय-"सोफी, अब हम अनंत काल तक अलग न होंगे।"

सोफी-"तुम इतने निर्दय नहीं हो, मैं जानती हूँ। मैं रानीजी से न डरूँगी, साफ-साफ कह दूंगी, विनय मेरे हैं।"

विनय की दशा उस भूखे आदमी की सी थी, जिसके सामने परसी थाली रखी हुई। हो, क्षुधा से चित्त व्याकुल हो रहा हो, आँतें सिकुड़ी जाती हो, आँखों में अँधेरा छा रह हो; मगर थाली में हाथ न डाल सकता हो, इसलिए कि पहले किसी देवता का भोग लगना है। उन्हें अब इसमें कोई संदेह न रहा था कि सोफ़ी की व्याकुलता उसी क्रिया का फल है। उन्हें विस्मय होता था कि उस जड़ी में ऐसी कौन-सी शक्ति है। वह अपने कृत्य पर लजित थे, और सबसे अधिक भयभीत थे, आत्मा से नहीं, परमात्मा से नहीं, सोफो से। जब सोफी को ज्ञात हो जायगा-कभी-न-कभी तो यह नशा उतरेगा हो-तब वह मुझसे इसका कारण पूछेगी और मैं छिपा न सकूँगा। उस समय वह मुझे क्या कहेगी!

आखिर जब अँगीठी की आग ठंडी हो गई और सोफी को सरदी मालूम होने लगी, तो सोफी चली गई। क्रिया का समय भी आ पहुँचा। लेकिन आज विनय को उसका साहस न हुआ। उन्हें उसकी परीक्षा ही करनी थी, परीक्षा हो गई और तांत्रिक साधनों पर उन्हें हमेशा के लिए श्रद्धा हो गई।

सोफिया को चारपाई पर लेटते ही ऐसा भ्रम हुआ कि रानी जाह्नवी सामने खड़ी ताक रही हैं। उसने कंबल से सिर निकालकर देखा और तब अपनी मानसिक दुर्बलता पर झुंझलाकर सोचने लगी-आजकल मुझे क्या हो गया है? मुझे क्यों भाँति-भाँति के संशय होते रहते हैं? क्यों नित्य अनिष्ट-शंका हृदय पर छाई रहती है? जैसे मैं विचार-हीन-सी हो गई हूँ। विनय आजकल क्यों मुझसे खिंचे हुए हैं? कदाचित् वह डर रहे हैं कि रानीजी कहीं उन्हें शाप न दे दें, अथवा आत्मघात न कर लें। इनकी बातों में पहले की उत्सुकता, प्रेमातुरता नहीं है। रानी मेरे जीवन का सर्वनाश किये देती हैं।

इन्हीं अशांतिमय विचारों में डूबी हुई वह सो गई, तो देखती क्या है..कि वास्तव में रानी जी मेरे सामने खड़ी क्रोधोन्मत्त नेत्रों से ताक रही हैं और कह रही हैं-