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रंगभूमि


"विनय मेरा है! वह मेरा पुत्र है, उसे मैंने जन्म दिया है, उसे मैंने पाला है, तू क्यों उसे मेरे हाथों से छीने लेती है? अगर तूने उसे मुझसे छीना, मेरे कुल को कलंकित किया, तो मैं तुम दोनों का इसी तलवार से वध कर दूंगी!"

सोफी तलवार की चमक देखकर घबरा गई। चिल्ला उठी। नींद टूट गई। उसकी सारी देह तृणवत् काँप रही थी। वह दिल मजबूत करके उठी और विनयसिंह की कोठरी में आकर उनके सीने से चिमट गई। विनय की आँखें लग ही रही थीं। चौंक-कर सिर उठाया।

सोफी-“विनय, विनय, जागो, मैं डर रही हूँ।"

विनय तुरत चारपाई से उतरकर खड़े हो गये और पूछा-"क्या है सोफी?"

सोफी “रानीजी को अभी-अभी मैंने अपने कमरे में देखा। अभी वहीं खड़ी हैं।"

विनय-"सोफी, शांत हो जाओ। तुमने कोई स्वप्न देखा है। डरने की कोई

सोफी-"स्वप्न नहीं था विनय, मैंने रानीजी को प्रत्यक्ष देखा।"

विनय-"वह यहाँ कैसे आ जायँगी? हवा तो नहीं हैं!"

सोफी-“तुम इन बातों को नहीं जानते विनय! प्रत्येक प्राणी के दो शरीर होते हैं-एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म। दोनों अनुरूप होते हैं, अंतर केवल इतना ही है कि सूक्ष्म शरीर स्थूल से कहीं सूक्ष्म होता है। वह साधारण दशाओं में अदृश्य रहता है, लेकिन समाधि या निद्रावस्था में स्थूल शरीर का स्थानपन्न बन जाता है। रानीजी का सूक्ष्म शरीर अवश्य यहाँ है।"

दोनों ने बैठकर रात काटी।

सोफिया को अब विनय के बिना क्षण-भर भी चैन न आता। उसे केवल मानसिक अशांति न थी, ऐंद्रिक सुख-भोग के लिए भी वह उत्कंठित रहती। जिन विषयों की कल्पना-मात्र से उसे अरुचि थी, जिन बातों को याद करके ही उसके मुख पर लालिमा छा जाती, वे ही कल्पनाएँ और वे ही भावनाएँ अब नित्य उसके चित्त पर आच्छादित रहतीं। उसे अपनी वासना-लिप्सा पर आश्चर्य होता था। किन्तु जब वह विलास कल्पना करते-करते उस क्षेत्र में प्रविष्ट होती, जो दांम्पत्य जीवन ही के लिए नियंत्रित है,तो रानीजी की वही क्रोध-तेज-पूर्ण मूर्ति उसके सम्मुख आकर खड़ी हो जाती और वह 'चौंककर कमरे से निकल भागती। इस भाँति उसने दस-बारह दिन काटे। कृपाण के नीचे खड़े अभियोगी की दशा भी इतनी चिंताजनक न होगी!

एक दिन वह घबराई हुई विनय के पास आई और बोली-"विनय, मैं बनारस जाऊँगी। मैं बड़े संकट में हूँ। रानीजी मुझे यहाँ चैन न लेने देंगी। अगर यहाँ रही, तो शायद जीवन से हाथ धोना पड़े, मुझ पर अवश्य कोई-न-कोई अनुष्ठान किया गया है। मैं इतनी अव्यवस्थित-चित्त कभी न थी। मुझे स्वयं ऐसा मालूम होता है कि अब मैं वह हूँ ही नहीं, कोई और ही हूँ। मैं जाकर रानीजी के पैरों पर गिरूँगी। उनसे