अपना अपराध क्षमा कराऊँगी और उन्हीं की आज्ञा से तुम्हें प्राप्त करूँगी। उनकी इच्छा के बगैर मैं तुम्हें नहीं पा सकती, और जबरदस्ती ले लूं, तो कुशल से न बीतेगी। विनय, मुझे स्वप्न में भी यह शंका न थी कि मैं तुम्हारे लिए इतनी अधीर हो जाऊँगी। मेरा हृदय कभी इतना दुर्बल और इतना मोह-ग्रस्त न था।"
विनय ने चिंतित होकर कहा-“सोफी, मुझे आशा है कि थोड़े दिनों में तुम्हारा चित्त शांत हो जायगा।"
सोफी-"नहीं विनय, कदापि नहीं। रानीजी ने तुम्हें एक महान् उद्देश्य के लिए बलि कर रखा है। बलि-जीवन का उपभोग अनिष्टकारक होता है। मैं उनसे भिक्षा मागूंगी।"
विनय-"तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।"
सोफ़ी-"नहीं-नहीं, ईश्वर के लिए ऐसा मत कहो। मैं तुम्हें रानीजी के सामने न ले जाऊँगी। मुझे अकेले जाने दो।”
विनय-"इस दशा में मैं तुम्हें अकेले कभी न जाने दूंगा। अगर ऐसा ही है, तो मैं तुम्हें वहाँ छोड़कर वापस आ जाऊँगा।"
सोफ़ी-"वचन दो कि बिना मुझसे पूछे रानीजी के पास न जाओगे।"
विनय—"हाँ, सोफी, यह स्वीकार है। वचन देता हूँ।"
सोफी-"फिर भी दिल नहीं मानता। डर लगता है, वहाँ तुम आवेश में आकर कहीं रानीजी के पास न चले जाओ। तुम यहीं क्यों नहीं रहते? मैं तुम्हें नित्यप्रति पत्र लिखा करूँगी और जल्द-से-जल्द लौट आऊँगी।"
विनय ने उसे तस्कीन देने के लिए अकेले जाने की अनुमति दे दी, लेकिन उनका स्नेह-सिंचित हृदय यह कब मान सकता था कि सोफिया इस अव्यवस्थित दशा में इतनी लंबी यात्रा करे। सोचा, उसकी निगाह बचाकर किसी दूसरी गाड़ी में बैठ जाऊँगा। उन्हें लौटकर आने की बहुत कम आशा थी। भीलों ने सुना, तो भाँति-भाँति के उपहार लेकर बिदा करने आये। मृग-चर्मों, बघनखों और नाना प्रकार की जड़ी-बूटियों का ढेर लग गया। एक भील ने धनुष भेंट किया। सोफी और विनय, दोनों ही को इस स्थान से प्रेम हो गया था। निवासियों का सरल, स्वाभाविक, निष्कपट जीवन उन्हें ऐसा भा गया था कि उन लोगों को छोड़कर जाते हुए हार्दिक वेदना होती थी। भील-गण खड़े रो रहे थे और कह रहे थे, जल्द आना, हमें भूल न जाना। बुढ़िया भीलनी तो उन्हें छोड़ती ही न थी। सब-के-सब स्टेशन तक उन्हें पहुँचाने आये। लेकिन जब गाड़ी आई और वह बैठी, विनय से बिदा होने का समय आया, तो वह विनय के गले से लिपटकर रोने लगी। विनय चाहते थे कि निकल जायें और किसी दूसरी गाड़ी में जा बैठे, पर वह उन्हें छोड़ती ही न थी। मानों यह अंतिम वियोग है। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो वह हृदय-वेदना से विकल होकर बोली—“विनय, मुझसे इतने दिनों कैसे रहा जायगा? रो-रोकर मर जाऊँगी। ईश्वर, मैं क्या करूँ?'