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रंगभूमि

प्रभु सेवक- "मैं तो लौटकर खाना खाऊँगा। भूख गायब हो गई। है तो अच्छी तरह?"

मिसेज सेवक—“हाँ-हाँ, बहुत अच्छी तरह है। खुदा ने यहाँ से रूठकर जाने की सजा दे दी।”

प्रभु सेवक-"मामा, खुदा ने आपका दिल न जाने किस पत्थर का बनाया है। क्या घर से आप ही रूठकर चली गई थी? आप ही ने उसे निकाला, और अब भी आपको उस पर जरा भी दया नहीं आती?"

मिसेज सेवक-"गुमराहों पर दया करना पाप है।"

प्रभु सेवक-"अगर सोफी गुमराह है, तो ईसाइयों में १०० में ९९ आदमी गुमराह हैं। वह धर्म का स्वाँग नहीं दिखाना चाहती, यही उसमें दोष है। नहीं तो प्रभु मसीह से जितनी श्रद्धा उसे है, उतनी उन्हें भी न होगी, जो ईसा पर जान देते हैं।"

मिसेज सेवक-"खैर, मालूम हो गया कि तुम उसकी वकालत खूब कर सकते हो। "मुझे इन दलीलों को सुनने की फुरसत नहीं।"

यह कहकर मिसेज सेवक वहाँ से चली गई। भोजन का समय आया। लोग मेजा पर बैठे। प्रभु सेवक आग्रह करने पर भी न गया। तीनों आदमी फिटन पर बैठे, तो ईश्वर सेवक ने चलते-चलते जॉन सेवक से कहा-"सोफो को जरूर साथ लाना, और इस अवसर को हाथ से न जाने देना। प्रभु मसीह तुम्हें सुबुद्धि दें, सफल-मनोरथ करें।"

थोड़ी देर में फिटन कुँवर साहब के मकान पर पहुँच गई। कुँवर साहब ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया। मिसेज सेवक ने मन में सोच रखा था, मैं सोफिया से एक शब्द भी न बोलूँगी, दूर से खड़ी देखती रहूँगी। लेकिन जब सोफिया के कमरे में पहुँची, और उसका मुरझाया हुआ चेहरा देखा, तो शोक से कलेजा मसोस उठा। मातृस्नेह उबल पड़ा। अधीर होकर उससे लिपट गई। आँखों से आँसू बहने लगे। इस प्रवाह में सोफिया का मनोमालिन्य बह गया। उसने दोनों हाथ माता की गरदन में डाल दिये, और कई मिनट तक दोनों प्रेम का स्वर्गीय आनंद उठाती रहीं। जॉन सेवक ने सोफिया का माथा चूमा; किन्तु प्रभु सेवक आँखों में आँसू-भरे उसके सामने खड़ा रहा। आलिंगन करते हुए उसे भय होता था कि कहीं हृदय फट न जाय। ऐसे अवसरों पर उसके भाव और भाषा, दोनों ही शिथिल हो जाते थे।

जब जॉन सेवक सोफ़ो को देखकर कुँवर साहब के साथ बाहर चले गये, तो मिसेज सेवक बोली-"तुझे उस दिन क्या सूझी कि यहाँ चली आई? यहाँ अजनबियों में पड़े-पड़े तेरी तबीयत घबराती रही होगी। ये लोग अपने धन के घमंड में तेरी बात भी न पूछते होंगे।"

सोफिया-"नहीं मामा, यह बात नहीं है। घमण्ड तो यहाँ किसी में छू भी नहीं