पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४६
रंगभूमि

ईश्वर सेवक—"मुझे तुम्हारी बुद्धि पर हँसी आती है। जिस आदमी से राह-रस्म पैदा करके तुम्हारे इतने काम निकल सकते हैं, उससे मिलने में भी तुम्हें इतना संकोच। तुम्हारा समय इतना बहुमूल्य है कि आध घंटे के लिए भी वहाँ नहीं जा सकते? पहली ही मुलाकात में सारी बातें तय कर लेना चाहते हो? ऐसा सुनहरा अवसर पाकर भी तुम्हें उससे फायदा उठाना नहीं आता।”

जॉन सेवक—“खैर, आपका अनुरोध है, तो मैं ही चला जाऊँगा। मैं एक जरूरी काम कर रहा था, फिर कर लूँगा। आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं। (स्त्री ने) तुम तो चल रही हो?”

मिसेज सेवक-"मुझे नाहक ले चलते हो; मगर खैर, चलो।"

भोजन के बाद चलना निश्चित हुआ। अँगरेजी प्रथा के अनुसार यहाँ दिन का भोजन एक बजे होता था। बीच का समय तैयारियों में कटा। मिसेज सेवक ने अपने आभूषण निकाले, जिनसे वृद्धावस्था ने भी उन्हें विरक्त नहीं किया था। अपना अच्छे-से-अच्छा गाउन और ब्लाउज निकाला। इतना शृंगार वह अपनी बरस-गाँठ के सिवा और किसी उत्सव में न करती थीं। उद्देश्य था सोफिया को जलाना, उसे दिखाना कि तेरे आने से मैं रो-रोकर मरी नही जा रही हूँ। कोचवान को गाड़ी धोकर साफ करने का हुक्म दिया गया। प्रभु सेवक को भी साथ ले चलने की राय हुई। लेकिन जॉन सेवक ने जाकर उसके कमरे में देखा, तो उसका पता न था। उसकी मेज पर एक दर्शन-ग्रंथ खुला पड़ा था। मालूम होता था, पढ़ते-पढ़ते उठकर कहीं चला गया है। वास्तव में यह ग्रंथ तीन दिनों से इसी भाँति खुला पड़ा था। प्रभु सेवक को उसे बंद करके रख देने का भी अवकाश न था। वह प्रातःकाल से दो घड़ी रात तक शहर का चक्कर लगाया करता। केवल दो बार भोजन करने घर पर आता था। ऐसा कोई स्कूल न था, जहाँ उसने सोफ़ी को न ढूँढ हो। कोई जान-पहचान का आदमी, कोई मित्र ऐसा न था, जिसके घर जाकर उसने तलाश न की हो। दिन-भर की दौड़-धूप के बाद रात को निराश होकर लौट आता, और चारपाई पर लेटकर घंटों सोचता और रोता। कहाँ चली गई? पुलिस के दफ्तर में दिन-भर में दस-दस बार जाता और पूछता, कुछ पता चला? समाचार-पत्रों में भी सूचना दे रखी थी। वहाँ भी रोज कई बार जाकर दरियाफ्त करता। उसे विश्वास होता जाता था कि सोफी हमसे सदा के लिए बिदा हो गई। आज भी, रोज की भाँति, एक बजे थका-माँदा, उदास और निराश लौटकर आया, तो जॉन सेवक ने शुभ-सूचना दी-"सोफिया का पता मिल गया।"

प्रभु सेवक का चेहरा खिल उठा। बोला-"सच! कहाँ है? क्या उसका कोई पत्र आया है?"

जॉन सेवक-"कुँवर भरतसिंह के मकान पर है। जाओ, खाना खा लो। भी वहाँ चलना है।"