भैरो—"ठीक तो कहती हो, मुद्दई सुस्त, तो गवाह कैसे चुस्त होगा। पहले चलकर पूछो, उसकी सलाह क्या है। अगर मानने लायक हो, तो मानो, न मानने लायक हो, न मानो। हाँ, एक बात जो तय हो जाय, उस पर टिकना पड़ेगा! यह नहीं कि कहा तो कुछ, पीछे से निकल भागे, सरदार तो भरम में पड़ा रहे कि आदमी पीछे हैं, और आदमी अपने-अपने घर की राह लें।"
बजरंगी—"चलो पंडाजी, पूछ ही देखें।"
नायकराम—"वह कहेगा बड़े साहब के पास चलो, वहाँ सुनाई न हो, तो पराग-राज लाट साहब के पास चलो। है इतना बूता?"
जगधर—"भैया की बात, महाराज, यहाँ तो किसी का मुँह नहीं खुला, लाट साहब के पास कौन जाता है!"
जमुनी—"एक बार चले क्यों नहीं जाते? देखो तो, क्या सलाह देता है?"
नायकराम—"मैं तैयार हूँ, चलो।"
ठाकुरदीन—"मैं न जाऊँगा, और जिसे जाना हो, जाय।"
जगधर-"तो क्या हमीं को बड़ी गरज पड़ी है?"
बजरंगी-"जो सबकी गत होगी, वही हमारी भी होगी।"
घंटे-भर तक पंचाइत हुई, पर सूरदास के पास कोई न गया। साझे की सुई ठेले पर लदती है। तू चल, मैं आता हूँ, यही हुआ किया। लोग अपने-अपने घर चले गये। संध्या-समय भैरो सूरदास के पास गया।
सूरदास ने पूछा—"आज क्या हुआ?"
भैरो-“हुआ क्या, घंटे भर तक बकवास हुई। फिर लोग अपने-अपने घर चले गये।”
सूरदास-"कुछ तय न हुआ कि क्या किया जाय?"
भैरो-“निकाले जायँगे, इसके सिवा और क्या होगा। क्यों सूरे, कोई न सुनेगा?"
सूरदास-"सुननेवाला भी वही है, जो निकालनेवाला है। तीसरा होता, तब न सुनता।"
भैरो-"मेरी मरन है। हजारों मन लकड़ी है, कहाँ ढोकर ले जाऊँगा १ कहाँ इतनी जमीन मिलेगी कि फिर टाल लगाऊँ?"
सूरदास-"सभी की मरन है। बजरंगी ही को इतनी जमीन कहाँ मिली जाती है कि पंद्रह-बीस जानवर भी रहें, आप भी रहें। मिलेगी भी तो इतना किराया देना पड़ेगा कि दिवाला निकल जायगा। देखो, मिठुआ आज भी नहीं आया। मुझे मालुम हो जाय कि वह बीमार है, तो छिन-भर न रुकू, कुत्ते की भाँति दौडूं, चाहे वह मेरी बात भी न पूछे। जिनके लिए अपनी जिंदगी खराब कर दो, वे भी गाढ़े समय पर मुँह फेर लेते हैं।"
भैरो–“अच्छा, तुम बताओ, तुम क्या करोगे, तुमने भी कुछ सोचा है?"