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रंगभूमि

सूरदास-'मेरी क्या पूछते हो, जमीन थी वह निकल ही गई; झोपड़ों के बहुत मिलेंगे, तो दो-चार रुपये मिल जायँगे। मिले तो क्या, और न मिले, तो क्या? जब तक कोई न बोलेगा, पड़ा रहूँगा। कोई हाथ पकड़कर निकाल देगा, बाहर जा बैलूंगा। वहाँ से उठा देगा, फिर आ बैठूगा। जहाँ जन्म लिया है, वहीं मरूँगा। अपना झोपड़ा जीते जी न छोड़ा जायगा। मरने पर जो चाहे, ले ले। बाप-दादों की जमीन खो दी, अब इतनी निसानी रह गई है, इसे न छोडूंगा। इसके साथ ही आप भी मर जाऊँगा।"

भैरो-"सूरे, इतना दम तो यहाँ किसी में नहीं।"

सूरदास-"इसी से तो मैंने किसी से कुछ कहा ही नहीं। भला सोचो, कितना अंधेर है कि हम, जो सत्तर पीढ़ियों से यहाँ आबाद हैं, निकाल दिये जायें और दूसरे यहाँ आकर बस जायँ। यह हमारा घर है, किसी के कहने से नहीं छोड़ सकते, जबरदस्ती जो चाहे, निकाल दे, न्याय से नहीं निकाल सकता। तुम्हारे हाथ में बल है, तुम हमें मार सकते हो, हमारे हाथ में बल होता, तो हम तुम्हें मारते। यह तो कोई इंसाफ नहीं है। सरकार के हाथ में मारने का बल है, हमारे हाथ में और कोई बल नहीं है, तो मर जाने का बल तो है?"

भैरो ने जाकर दूसरों से ये बातें कहीं। जगधर ने कहा-"देखा, यह सलाह है! घर तो जायगा ही, जान भी जायगी।"

ठाकुरदीन बोले- "यह सूरदास का किया होगा। आगे नाथ न पीछे पगहा, मर ही जायगा, तो क्या? यहाँ मर जायँ, तो बाल-बच्चों को किसके सिर छोड़ें?"

बजरंगी-"मरने के लिए कलेजा चाहिए। जब हम ही मर गये, तो घर लेकर क्या होगा?"

नायकराम-“ऐसे बहुत मरनेवाले देखे हैं, घर से तो निकला ही नहीं गया, मरने चले हैं।"

भैरो-"उसकी न चलाभो पंडाजी, मन में आने की बात है।"

दूसरे दिन से तखमीने के अफसर ने मिल के एक कमरे में इजलास करना शुरू किया। एक मुंशी मुहल्ले के निवासियों के नाम, मकानों की हैसियत, पके हैं या कच्चे, पुराने हैं या नये, लंबाई, चौड़ाई आदि की एक तालिका बनाने लगा। पटवारी और मुंशी घर-घर घूमने लगे। नायकराम मुखिया थे। उनका साथ रहना जरूरी था। इस वक्त सभी प्राणियों का भाग्य-निर्णय इसी त्रिमूर्ति के हाथों में था। नायकराम की चढ़ बनी। दलाली करने लगे। लोगों से कहते, निकलना तो पड़ेगा ही, अगर कुछ गम खाने से मुआवजा बढ़ जाय, तो हरज ही क्या है। बैठे-बिठाए मुट्ठी गर्म होती थी; तो क्यों छोड़ते! सारांश यह कि मकानों की हैसियत का आधार वह भेंट थी, जो इस त्रिमूर्ति को चढ़ाई जाती थी। नायकराम टट्टी की आड़ से शिकार खेलते थे। यश भी कमाते थे, धन भो। भैरों का बड़ा मकान और सामने का मैदान सिमट गए, उनका क्षेत्रफल घट गया, त्रिमृति की वहाँ कुछ पूजा न हुई। जगधर का छोटा-सा मकान फैल