तो शांति भंग हो जाने का भय है। बैंक से आदमी रुपए लेकर लोटा, तो पाँच बज चुके थे। तुरत मोटर पर सवार होकर पाँडेपुर आ पहुँचे। आए तो थे ऐसी शुभेच्छाओं से, पर वहाँ विनय और इन्दु को देखकर तैश आ गया। जी में आया, लोगों से कह दूँ, जिनके बूते पर उछल रहे हो, उनसे रुपए लो, इधर सरकार को लिख दूंँ कि लोग विद्रोह करने पर तैयार हैं, उनके रुपए जब्त कर लिए जायँ। उसी क्रोध में उन्होंने विनय से वे बातें कीं, जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं। मगर जब उन्होंने देखा कि जन-समह का रेला बढ़ा चला आ रहा है, लोगों के मुख आवेश-विकृत हो रहे हैं, सशस्त्र पुलिस संगीने चढ़ाए हुए हैं, और इधर-उधर दो-चार पत्थर भी चल रहे हैं, तो उनकी वही दशा हुई, जो भय में नशे की होती है। तुरत मोटर पर खड़े हो गए, और जोर से चिल्लाकर बोले-"मित्रो, जरा शांत हो जाओ। यों दंगा करने से कुछ न होगा। मैं रुपए लाया हूँ, अभी तुमको मुआवजा मिल जायगा। सरकार ने अभी मंजरी नहीं भेजी है, लेकिन तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम मुझसे अपने रुपए ले सकते हो। इतनी-सी बात के वास्ते तुम्हारा यह दुराग्रह सर्वथा अनुचित है। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा दोष नहीं है, तुमने किसी के बहकाने से ही शरारत पर कमर बाँधी है। लेकिन मैं तुम्हें उस विद्रोह ज्वाला में न कूदने दूंगा, जो तुम्हारे शुभचिंतकों ने तैयार कर रक्खी है। यह लो, तुम्हारे रुपए हैं। सब आदमी बारी बारी से आकर अपने नाम लिखाओ, अँगूठे का निशान करो, रुपए लो, और चुपके-चुपके घर जाओ।"
एक आदमी ने कहा—"घर तो आपने छीन लिए।"
राजा-"रुपयों से घर मिलने में देर न लगेगी, हमसे तुम्हारी जो कुछ सहायता हो सकेगी, वह उठा न रक्खेंगे। इस भीड़ को तुरंत हट जाना चाहिए, नहीं तो रुपए मिलने में देर होगी।"
जो जन-समूह उमड़े हुए बादलों की तरह भयंकर और गंभीर हो रहा था, यह घोषणा सुनते ही रुई के गालों की भांति फट गया। न-जाने लोग कहाँ समा गए। केवल वे ही लोग रह गए, जिन्हें रुपये पाने थे। सामयिक सुबुद्धि मँडलाती हुई विपत्ति का कितनी सुगमता से निवारण कर सकती है, इसका यह उज्ज्वल प्रमाण था। एक अनुचित शब्द, एक कठोर वाक्य अवस्था को असाध्य बना देता।
पटवादी ने नामावली पढ़नी शुरू की। राजा साहब अपने हाथों से रुपए बाँटने लगे। आसामी रुपये लेता था, अँगूठे का निशान बनाता था, और तब दो सिपाही उसके साथ कर दिए जाते थे कि जाकर मकान खाली करा लें।
रुपए पाकर लौटते हुए लोग यों बातें करते जाते थे-
एक मुसलमान—“यह राजा बड़ा मूजी है; सरकार ने रुपये भेज दिए थे, पर दबाए बैठा था। हम लोग गरम न पड़ते, तो हजम कर जाता।"
दूसरा—“सोचा होगा, मकान खाली करा लूँ, और रुपए सरकार को वापस करके सुर्खरू बन जाऊँ।"
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