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रंगभूमि


वह तो यहाँ तक चाहते थे कि निवासियों को कुछ रुपये पेशगी दे दिये जायँ, जिसमें वे पहले ही से अपना-अपना ठिकाना कर लें। पर किसी अज्ञात कारण से रुपये की स्वीकृति में विलंब हो रहा था। वह मि० सेनापति से बार-बार कहते कि आप मंजूरी की आशा पर अपने हुक्म से रुपये दिला दें; पर जिलाधीश कानों पर हाथ रखते थे कि न-जाने सरकार का क्या इरादा है, मैं बिना हुक्म पाए कुछ नहीं कर सकता। जब आज भी मंजूरी न आई, तो राजा साहब ने तार द्वारा पूछा। दोपहर तक वह जवाब का इंतजार करते रहे। आखिर जब इस जमाव की खबर मिली, तो घबराए। उसी वक्त दौड़े हुए जिलाधीश के बँगले पर गए कि उनसे कुछ सलाह लें। उन्हें आशा थी कि वह स्वयं घटनास्थल पर जाने को तैयार होंगे, पर वहाँ जाकर देखा, तो साहब बीमार पड़े थे। बीमारी क्या थी, बीमारी का बहाना था। बदनामी से बचने का यही उपाय था। राजा साहब से बोले- "मुझे खेद है, मैं नहीं जा सकता, आप जाकर उपद्रव को शांत करने के लिए जो उचित समझें, करें।"

महेंद्रकुमार अब बहुत घबराए, अपनी जान किसी भाँति बचती न नजर आती थी

—"अगर कहीं रक्तपात हो गया, तो मैं कहीं का न रहूँगा! सब कुछ मेरे ही सिर आएगी। पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं। आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत है! निरपराध मारा जा रहा हूँ! मुझ पर कुछ ऐसा सनीचर सवार हुआ है कि जो कुछ करना चाहता हूँ, उसके प्रतिकूल करता हूँ, जैसे अपने ऊपर कोई अधिकार ही न रहा हो। इस जमीन के झमेले में पड़ना ही मेरे लिये जहर हो गया। तब से कुछ ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती चली आती हैं, जो मेरी महत्वाकांक्षाओं का सर्वनाश किए देती हैं। यह, कीर्ति, नाम, सम्मान को कौन रोए, मुँह दिखाने के लाले पड़े हुए हैं!"

यहाँ से निराश होकर वह फिर घर आए कि चलकर इंदु से राय लूँ, देखू, क्या कहती है। पर यहाँ इंदु न थी। पूछा, तो मालूम हुआ, सैर करने गई हैं।

इस समय राजा साहब की दशा उस कृपण की-सी थी, जो अपनी आँखों से अपना धन लुटते देखता हो, और इस भय से कि लोगों पर मेरे धनी होने का भेद खुल जायगा, कुछ बोल न सकता हो। अचानक उन्हें एक बात सूझी-


क्यों न मुआवजे के रुपए अपने ही पास से दे दूँ? रुपए कहीं जाते तो हैं नहीं, जब मंजूरी आ जायगी, वापस ले लूँगा। दो-चार दिन का मुआमला है, मेरी बात रह जायगी, और जनता पर इसका कितना अच्छा असर पड़ेगा! कुल सत्तर हजार तौ हैं ही। और इसकी क्या जरूरत है कि सब रुपए आज ही दे दिए जायँ? कुछ आज दे दूँ, कुछ कल, दे दूं, तब तक मंजूरी आ ही जायगी। जब लोगों को रुपए मिलने लगेंगे तो तस्कीन हो जायगी, यह भय न रहेगा कि कहीं सरकार रुपये जब्त न कर ले। खेद है, मुझे पहले यह बात न सूझी, नहीं तो इतना झमेला ही क्यों होता। उन्होंने उसी वक्त इंपीरियल बैंक के नाम बीस हजार का चेक लिखा। देर बहुत हो गई थी, इसलिये बैंक के मैनेजर के नाम एक पत्र भी लिख दिया कि रुपए देने में विलंब न कीजिएगा, नहीं