पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५०८
रंगभूमि


आगे-आगे थे। राजा साहब और ब्रॉउन, दोनों खोये हुए-से खड़े थे। उनकी आँखों के सामने एक ऐसी घटना घटित हो रही थी, जो पुलिस के इतिहास में एक नूतन युग की सूचना दे रही थी, जो परंपरा के विरुद्ध, मानव-प्रकृति के विरुद्ध, नीति के विरुद्ध थी। सरकार के वे पुराने सेवक, जिनमें से कितनों ही ने अपने जीवन का अधिकांश प्रजा का दमन करने ही में व्यतीत किया था, यों अकड़ते हुए चले जायें! अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि प्राणों को भी, समर्पित करने को तैयार हो जाये! राजा साहब अब तक उत्तरदायित्व के भार से काँप रहे थे, अब यह भय हुआ कि कहीं ये लोग मुझ पर टूट न पड़ें। ब्रॉउन तो घोड़े पर सवार आदमियों को हंटर मार-मारकर भगाने की चेष्टा कर रहा था और राजा साहब अपने लिए छिपने की कोई जगह तलाश कर रहे थे, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ताका भी नहीं। सब-के-सब विजय-घोष करते हुए, तरल वेग से सूरदास की झोपड़ी की ओर दौड़े चले जाते थे। वहाँ पहुँचकर देखा, तो झोपड़े के चारों तरफ सैकड़ों आदमी खड़े थे, माहिरअली अपने आदमियों के साथ नीम के वृक्ष के नीचे खड़े नई सशस्त्र पुलिस की प्रतीक्षा कर रहे थे, हिम्मत न पड़ती थी कि इस व्यूह को चीरकर झोपड़े के पास जायँ। सबके आगे नायकराम कंधे पर लठ रखे खड़े थे। इस व्यूह के मध्य में, झोंपड़े के द्वार पर, सूरदास सिर झुकाये बैठा हुआ था, मानों धैर्य, आत्मबल और शांत तेज की सजीव मूर्ति हो।

विनय को देखते ही नायकराम आकर बोला—"भैया, तुम अब कुछ चिंता मत करो! मैं यहाँ सँभाल लूँगा। इधर महीनों से सूरदास से मेरी अनबन थी, बोल-चाल तक बंद था, पर आज उसका जीवट-जिगर देखकर दंग हो गया। एक अंधे अपाहिज में यह हियाव! हम लोग देखने ही को मिट्टी का यह बोझ लादे हुए हैं।"

विनय-"इंद्रदत्त का मरना गजब हो गया!"

नायकराम-“भैया, दिल न छोटा करो, भगवान की यही इच्छा होगी!"

विनय-"कितनी वीर-मृत्यु पाई है।"

नायकराम-“मैं तो खड़ा देखता ही था, माथे पर सिकन तक नहीं आई।"

विनय-"मुझे क्या मालूम था कि आज यह नौबत आयेगी, नहीं पहले खुद जाता। वह अकेले सेवा-दल का काम सँभाल सकते थे, मैं नहीं सँभाल सकता। कितना सहास मुख था! कठिनाइयों को तो ध्यान में ही न लाते थे, आग में कूदने के लिए तैयार रहते थे। कुशल यही है कि अभी विवाह नहीं हुआ था।"

नायकराम-“घरवाले कितना जोर देते रहे, पर इन्होंने एक बार नहीं करके फिर हाँन की।"

विनय—"एक युवती के प्राण बच गये।"

नायकराम—“कहाँ की बात भैया, ब्याह हो गया होता, तो वह इस तरह बेधड़क गोलियों के सामने जाते ही न। बेचारे माता-पिता का क्या हाल होगा!”

विनय—"रो-रोकर मर जायँगे और क्या।"