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रंगभूमि


नायकराम-"इतना अच्छा है कि और कई भाई हैं, और घर के पोढ़े हैं।"

विनय-"देखो, इन सिपाहियों की क्या गति होती है। कल तक फौज आ जायगी। इन गरीबों की भी कुछ फिक्र करनी चाहिए।"

नायकराम-"क्या फिकिर करोगे भैया? उनका कोर्टमार्शल होगा। भागकर कहाँ जायँगे?"

विनय-"यही तो उनसे कहना है कि भागें नहीं, जो कुछ किया है, उसका यश लेने से न डरें हवलदार को फाँसी हो जायगी।"

यह कहते हुए दोनों आदमी झोंपड़े के पास आये, तो हवलदार बोला-"कुँवर साहब, मेरा तो कोर्टमर्शल होगा ही, मेरे बाल-बच्चों की खबर लीजिएगा।" यह कहते-कहते वह धाड़ मार-मार रोने लगा।

बहुत-से आदमी जमा हो गये और कहने लगे-"कुँवर साहब, चंदा खोल दीजिए। हवलदार! तुम सच्चे सूरमा हो, जो निर्बलों पर हाथ नहीं उठाते।”

विनय-"हवलदार, हमसे जो कुछ हो सकेगा, वह उठा न रखेंगे। आज तुमने हमारे मुख की लाली रख ली।”

हवलदार-"कुँवर साहब, मरने-जीने की चिंता नहीं, मरना तो एक दिन होगा ही, अपने भाइयों की सेवा करते हुए मारे जाने से बढ़कर और कौन मौत होगी? धन्य है आपको, जो सुख-विलास त्यागे हुए अभागों की रक्षा कर रहे हैं।"

विनय-"तुम्हारे साथ के जो आदमी नौकरी करना चाहें, उन्हें हमारे यहाँ जगह मिल सकती है।"

हवलदार-“देखिए, कौन बचता है और कौन मरता है।"

राजा साहब ने अवसर पाया, तो मोटर पर बैठकर हवा हो गये। मि० ब्राउन सैनिक सहायता के विषय में जिलाधीश से पगमर्श करने चले गये। माहिरअली और उनके सिपाही वहाँ जमे रहे। अँधेरा हो गया था, जनता भी एक-एक करके जाने लगी। सहसा सूरदास आकर बोला-"कुँवरजी कहाँ हैं? धर्मावतार, हाथ-भर जमीन के लिए क्यों इतना झंझट करते हो। मेरे कारन आज इतने आदमियों की जान गई। मैं क्या जानता था कि राई का परबत हो जायगा, नहीं तो अपने हाँथों से इस झोपड़े में आग लगा देता और मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाता। मुझे क्या करना था, जहीं माँगता, वहीं पड़ रहता। भैया, मुझसे यह नहीं देखा जाता कि मेरी झोंपड़ी के पीछे कितने ही घर उजड़ जायँ। जब मर जाऊँ, तो जो जी में आये, करना।"

विनय—"तुम्हारी झोपड़ी नहीं, यह हमारा जातीय मंदिर है। हम इस पर फावड़े चलते देखकर शांत नहीं बैठे रह सकते।"

सूरदास—“पहले मेरी देह पर फावड़ा चल चुकेगा, तब घर पर फावड़ा चलेगा।"

विनय—"और अगर आग लगा दें?"

सूरदास—"तब तो मेरी चिता बनी-बनाई है। भैया, मैं तुमसे और सब भाइयों से