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रंगभूमि


"प्रिये, मेरा कहना मानो, आज मत जाओ। अच्छे रंग नहीं हैं। कोई अनिष्ट होने-वाला है।"

सोफिया-"इसलिए तो मैं जाना जाहती हूँ। औरों के लिए भय बाधक हो, तो मे लिए भी क्यों हो?"

विनय-"क्लार्क का आना बुरा हुआ।"

सोफिया-"इसीलिए मैं और जाना चाहती हूँ, मुझे विश्वास है कि मेरे सामने वह कोई पैशाचिक आचरण न कर सकेगा। इतनी सज्जनता अभी उसमें है।”

यह कहकर सोफिया अपने कमरे में गई और अपना पुराना पिस्तौल सलूके की जेब में रखा। गाड़ी तैयार करने को पहले ही कह दिया था। वह बाहर निकली, तो गाड़ी तैयार खड़ी थी। जाकर विनयसिंह के कमरे में झाँका, वह वहाँ न थे। तब वह द्वार पर कुछ देर तक खड़ी रही, एक अज्ञात शंका ने, किसी अमंगल के पूर्वाभास ने उसके हृदय को आंदोलित कर दिया। वह अपने कमरे में लौट जाना चाहती थी कि कुँवर साहब आते हुए दिखाई दिये। सोफी डरी कि यह कुछ पूछ न बैठें, तुरत गाड़ी में आ बैठी और कोचवान को तेज चलने का हुक्म दिया। लेकिन जब गाड़ी कुछ दूर निकल गई, तो वह सोचने लगी कि विनय कहाँ चले गये? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वह मुझे जाने पर तत्पर देखकर मुझसे पहले ही चल दिये हों? उसे मनस्ताप होने लगा कि मैं नाहक यहाँ आने को तैयार हुई। विनय की आने की इच्छा न थी! वह मेरे ही आग्रह से आये हैं। ईश्वर! तुम उनकी रक्षा करना। क्लार्क उनसे जला हुआ है ही, कहीं उपद्रव न हो जाय? मैंने विनय को अकर्मण्य समझा। मेरी कितनी धृष्टता है। यह दूसरा अवसर है कि मैंने उन पर मिथ्या दोषारोपण किया। मैं शायद अब तक उन्हें नहीं समझी। वह वीर आत्मा हैं, यह मेरी क्षुद्रता है कि उनके विषय में अक्सर मुझे भ्रम हो जाता है। अगर मैं उनके मार्ग का कंटक न बनी होती, तो उनका जीवन कितना निष्कलंक, कितना उज्ज्वल होता? मैं ही उनकी दुर्बलता हूँ, मैं ही उनको कलंक लगानेवाली हूँ! ईश्वर करे, वह इधर न आये हो। उनका न आना ही अच्छा। यह कैसे मालूम हो कि यहाँ आये या नहीं! चलकर देख लूँ।

उसने कोचवान को और तेज चलने का हुक्म दिया।

उधर विनयसिंह दफ्तर में जाकर सेवक-संस्था के आय-व्यय का हिसाब-लिख रहे थे। उनका चित्त बहुत उदास था। मुख पर नैराश्य छाया हुआ था। रह-रहकर अपने चारों ओर वेदनातुर दृष्टि से देखते और फिर हिसाब लिखने लगते थे। न जाने वहाँ से लौटकर आना हो या न हो, इसलिए हिसाब-किताब ठीक कर देना आवश्यक समझते थे। हिसाब पूरा करके उन्होंने प्रार्थना के भाव से ऊपर की ओर देखा, फिर बाहर निकलें, बाइसिकल उठाई और तेजी से चले, इतने सतृष्ण नेत्रों से पीछे फिरकर भवन, उद्यान और विशाल वृक्षों को देखते जाते थे, मानों उन्हें फिर न देखेंगे, मानों यह उनका अंतिम दर्शन है। कुछ दूर आकर उन्होंने देखा, सोफिया चली जा रही है।