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रंगभूमि


अगर वह उससे मिल जाते, तो कदाचित् सोफिया भी उनके साथ लौट पड़ती; पर उन्हें तो यह धुन सवार थी कि सोफिया के पहले वहाँ जा पहुँचूँ। मोड़ आते ही उन्होंने अपनी पैरगाड़ी को फेर दिया और दूसरा रास्ता पकड़ा। फल यह हुआ कि जब वह संग्राम-स्थल में पहुँचे, तो सोफिया अभी तक न आई थी। विनय ने देखा, गिरे हुए मकानों की जगह सैकड़ों छोलदारियाँ खड़ी हैं और उनके चारों ओर गोरखे खड़े चक्कर लगा रहे हैं। किसी की गति नहीं है कि अंदर प्रवेश कर सके। हजारों आदमी आस-पास खड़े हैं, मानों किसी विशाल अभिनय को देखने के लिए दर्शकगण वृत्ताकार खड़े हों। मध्य में सूरदास का झोपड़ा रंगमंच के समान स्थिर था। सूरदास झोपड़े के सामने लाठी लिये खड़ा था, मानों सूत्रधार नाटक का आरंभ करने को खड़ा है। सब-के-सब सामने का दृश्य देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि विनय की ओर किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ। सेवक-दल के युवक झोपड़े के सामने रातों-रात ही पहुँच गये थे। विनय ने निश्चय किया कि मैं भी वहीं जाकर खड़ा हो जाऊँ।

एकाएक किसी ने पीछे से उनका हाथ पकड़कर खींचा। इन्होंने चौंककर देखा, तो सोफ़िया थी। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। घबराई हुई आवाज से बोली-"तुम क्यों आये?"

विनय-"तुम्हें अकेले क्योंकर छोड़ देता?”

सोफिया-"मुझे बड़ा भय लग रहा है। ये तोपें लगा दी गई हैं?"

विनय ने.तोपें न देखी थीं। वास्तव में तीन तोपें झोपड़े की ओर मुँह किये हुए खड़ी थीं, मानों रंगभूमि में दैत्यों ने प्रवेश किया हो।

विनय-"शायद आज इस सत्याग्रह का अंत कर देने का निश्चय हुआ है।"

सोफिया—"मैं यहाँ नाहक आई। मुझे घर पहुँचा दो।"

आज सोफिया को पहली बार प्रेम के दुर्बल पक्ष का अनुभव हुआ। विनय की रक्षा की चिंता में वह कभी इतनी भय-विकल न हुई थी। जानती थी कि विनय का कर्तव्य, उनका गौरव, उनका श्रेय यहीं रहने में है। लेकिन यह जानते हुए भी उन्हें यहाँ से हटा ले जाना चाहती थी। अपने विषय में कोई चिंता न थी। अपने को वह बिलकुल भूल गई थी।

विनय-"हाँ, तुम्हारा यहाँ रहना जोखिम की बात है। मैंने पहले ही मना किया था, तुमने न माना।"

सोफिया विनय का हाथ पकड़कर गाड़ी पर बैठा देना चाहती थी कि सहसा इंदु-रानी की मोटर आ गई। मोटर से उतरकर वह सोफ़िया के पास आई, बोली-"क्यों सोफी, जाती हो क्या?"

सोफिया ने बात बनाकर कहा-"नहीं, जाती नहीं हूँ, जरा पीछे हट जाना चाहती हूँ।