पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५३२
रंगभूमि


आगे लालटेन दिखाते हुए चले। वर्षा ने जल-थल एक कर दिया था। सड़क के किनारे के वृक्ष, जो अब पानी में खड़े थे, सड़क का चिह्न बता रहे थे। सोफी का शोक एक ही क्षण में आत्मग्लानि के रूप में बदल गया-"हाय! मैं ही हत्यारिन हूँ। क्यों आकाश से वज्र गिरकर मुझे भस्म नहीं कर देता? क्यों कोई साँप जमीन से निकलकर मुझे डस नहीं लेता? क्यों पृथ्वी फटकर मुझे निगल नहीं जाती? हाय! आज मैं वहाँ न गई होती, तो वह कदापि न जाते। मैं क्या जानती थी कि विधाता मुझे सर्वनाश की ओर लिये जाता है! मैं दिल में उन पर झुंझला रही थी, मुझे यह संदेह भी हो रहा था कि यह डरते हैं! आह! यह सब मेरे कारण हुआ, मैं ही अपने सर्वनाश का कारण हूँ! मैं अपने हाथों लुट गई। हाय! मैं उनके प्रेम के आदर्श को न पहुँच सकी।"

फिर उसके मन में विचार आया-"कहीं खबर झूठी न हो। उन्हें चोट लगो हो और वह संज्ञा-शून्य हो गये हों। आह। काश मैं एक बार उनके वचनामृत से अपने हृदय को पवित्र कर लेती! नहीं-नहीं, वह जीवित हैं, ईश्वर मुझ पर इतना अत्याचार नहीं कर सकता। मैंने कभी किसी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाया, मैंने कभी उस पर अविश्वास नहीं किया, फिर वह मुझे इतना वज्रदंड क्यों देगा!"

जब सोफिया संग्राम-स्थल के समीप पहुँची, तो उस पर भीषण भय छा गया। वह सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर बैठ गई। वहाँ कैसे जाऊँ? कैसे उन्हें देखूँगी, कैसे उन्हें स्पर्श करूँगी! उनकी मरणावस्था का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच गया, उनकी मृत देह रक्त और धूल में लिपटी हुई भूमि पर पड़ी हुई थी। इसे उसने जीते-जागते देखा था। उसे इस जीर्णावस्था में वह कैसे देखेगी! उसे इस समय प्रबल आकांक्षा हुई कि वहाँ जाते ही मैं भी उनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूं। अब संसार में मेरे लिए कौन-सा सुख है! हाय! यह कठिन वियोग कैसे सहूँगी! मैंने अपने जीवन को नष्ट कर दिया, ऐसे नर-रत्न को धर्म की पैशाचिक क्रूरता पर बलिदान कर दिया।

यद्यपि वह जानती थी कि विनय का देहावसान हो गया, फिर भी उसे भ्रांत आया हो रही थी कि कौन जाने, वह केवल मूर्च्छित हो गये हों! सहसा उसे पीछे से एक मोटरकार पानी को चीरती हुई आती दिखाई दी। उसके उज्ज्वल प्रकाश में फटा हुआ पानी ऐसा जान पड़ता था, मानों दोनों ओर से जल-जंतु उस पर टूट रहे हों। वह निकट आकर रुक गई। रानी जाह्नवी थीं। सोफी को देखकर बोलीं-"बेटी! तुम यहाँ क्यों बैठी हो! आओ, मेरे साथ चलो। क्या गाड़ी नहीं मिली?"

सोफी चिल्लाकर रानी के गले से लिपट गई। किंतु रानी की आँखों में आँसू न थे, मुख पर शोक का चिह्न न था। उनकी आँखों में गर्व का मद छाया हुआ था, मुख पर विजय की आभा झलक रही थी। सोफी को गले से लगाती हुई बोलीं-"क्यों रोती हो बेटी? विनय के लिए? वीरों की मृत्यु पर आँसू नहीं बहाये जाते, उत्सव के राग गाते जाते हैं। मेरे पास हीरे और जवाहिर होते, तो उसकी लाश पर लुटा देती। मुझे