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रंगभूमि


उसके मरने का दुःख नहीं है। दुःख होता, अगर वह आज प्राण बचाकर भागता। यह तो मेरी चिर-सिंचित अभिलाषा थी, बहुत ही पुरानी। जब मैं युवती थी और वीर राजपूतों तथा राजपूतनियों के आत्मसमर्पण की कथाएँ पढ़ा करती थी, उसी समय मेरे मन में यह कामना अंकुरित हुई थी कि ईश्वर मुझे भी कोई ऐसा ही पुत्र देता, जो उन्हीं वीरों की भाँति मृत्यु से खेलता, जो अपना जीवन देश और जाति-हित के लिए हवन कर देता, जो अपने कुल का मुख उज्ज्वल करता। मेरी वह कामना पूरी हो गई। आज मैं एक वीर पुत्र की जननी हूँ। क्यों रोती हो? इससे उसकी आत्मा को क्लेश होगा। तुमने तो धर्म-ग्रन्थ पढ़े हैं। मनुष्य कभी मरता है? जीव तो अमर है। उसे तो परमात्मा भी नहीं मार सकता। मृत्यु तो केवल पुनर्जीवन की सूचना है, एक उच्चतर जीवन का मार्ग। विनय फिर संसार में आयेगा, उसकी कीर्ति और भी फैलेगी। जिस मृत्यु पर घरवाले रोयें, वह भी कोई मृत्यु है! वह तो एड़ियाँ रगड़ना है। वीर मृत्यु वही है, जिस पर बेगाने रोयें और घरवाले आनंद मनायें। दिव्य मृत्यु दिव्य जीवन से कहीं उत्तम है। दिव्य जीवन में कलुषित मृत्यु की शंका रहती है, दिव्य मृत्यु में यह संशय कहाँ? कोई जीव दिव्य नहीं है, जब तक उसका अंत भी दिव्य न हो। यह लो, पहुँच गये। कितनी प्रलयंकर वृष्टि है, कैसा गहन अंधकार! फिर भी सहस्रों प्राणी उसके शव पर अश्रु-वर्षा कर रहे हैं, क्या यह रोने का अवसर है?"

मोटर रुकी। सोफिया और जाह्नवी को देखकर लोग इधर-उधर हट गये। इंदु दौड़कर माता से लिपट गई। हजारों आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। जाह्नवी ने विनय का नत मस्तक अपनी गोद में लिया, उसे छाती से लगाया, उसका चुंबन किया और शोक-सभा की ओर गर्व-युक्त नेत्रों से देखकर बोली-“यह युवक, जिसने विनय पर अपने प्राण समर्पित कर दिये, विनय से बढ़कर है। क्या कहा? मुसलमान है! कर्तव्य के क्षेत्र में हिंदू और मुसलमान का भेद नहीं, दोनों एक ही नाव में बैठे हुए हैं, डूबेंगे, तो दोनों डूबेंगे; बचेंगे, तो दोनों बचेंगे। मैं इस वीर आत्मा का यही मजार बनाऊँगी। शहीद के मजार को कौन खोदकर फेक देगा, कौन इतना नीच और अधम होगा! यह सच्चा शहीद था। तुम लोग क्यों रोते हो? विनय के लिए? तुम लोगों में कितने ही युवक हैं, कितने ही बाल-बच्चोंवाले हैं। युवकों से मैं कहूँगी-जाओ, और विनय की भाँति प्राण देना सीखो। दुनिया केवल पेट पालने की जगह नहीं है। देश की आँखें तुम्हारी ओर लगी हुई हैं, तुम्ही इसका बेड़ा पार लगाओगे। मत फँसों गृहस्थी के जंजाल में, जब तक देश का कुछ हित न कर लो। देखो, विनय कैसा हँस रहा है! जब बालक था, उस समय की याद आती है। इसी भाँति हँसता था। कभी उसे रोते नहीं देखा। कितनी विलक्षण हसी है। क्या इसने धन के लिए प्राण दिये? धन इसके घर में भरा हुआ था, उसकी ओर कभी आँख उठाकर नहीं देखा, बरसों हो गये, पलंग पर नहीं सोया, जूते नहीं पहने, भरपेट भोजन नहीं किया, जरा देखो, उसके पैरों में कैसे घठे पड़ गये हैं, विरागी था, साधु था, तुम लोग भी ऐसे ही

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