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रंगभूमि


का सर्वनाश कर दिया। मेरे ही कारण वह दो बार कर्तव्य-मार्ग से विचलित हुए, मेरे ही कारण उनकी जान पर बनी! अब वह मोहिनी मूर्ति देखने को तरस जाऊँगी। जानती हूँ कि हमारा फिर संयोग होगा, लेकिन नहीं जानती, कब!” उसे वे दिन याद आये, जब भीलों के गाँव में इसी समय वह द्वार पर बैठी उनकी राह जोहा करती थी और वह कम्बल ओढे, नंगे सिर, नंगे पाँव हाथ में एक लकड़ी लिये आते थे और मुस्किरा-कर पूछते थे, मुझे देर तो नहीं हो गई? वह दिन याद आया, जब राजपूताना जाते समय विनय ने उसकी ओर आतुर, किंतु निराश नेत्रों से देखा था। आह! वह दिन याद आया, जब उसकी ओर ताकने के लिए रानीजी ने उन्हें तीव्र नेत्रों से देखा था और वह सिर झुकाये बाहर चले गये थे। सोफी शोक से विह्वल हो गई। जैसे हवा के झोंके धरती पर बैठी हुई धूल को उठा देते हैं, उसी प्रकार इस नीरव निशा ने उसकी स्मृतियों को जाग्रत कर दिया; सारा हृदय-क्षेत्र स्मृतिमय हो गया। वह बेचैन हो गई, कुर्सी से उठकर टहलने लगी। जी न जाने क्या चाहता था-"कहीं उड़ जाऊँ, मर जाऊँ, कहाँ तक मन को समझाऊँ, कहाँ तक सब्र करूँ! अब न समझाऊँगी, रोऊँगी, तड़पूँगी, खूब जी भरकर! वह, जो मुझ पर प्राण देता था, संसार से उठ जाय, और मैं अपने को समझाऊँ कि अब रोने से क्या होगा? मैं रोऊँगी, इतना रोऊँगी कि आखें फूट जायँगी, हृदय-रक्त आँखों के रास्ते निकलने लगेगा, कंठ बैठ जायगा। आँखों को अब करना ही क्या है! वे क्या देखकर कृतार्थ होंगी! हृदय-रक्त अब प्रवाहित होकर क्या करेगा!"

इतने में किसी की आहट सुनाई दी। मिठुआ और भैरो बरामदे में आये। मिठुआ ने सोफ़ी को सलाम किया और सूरदास की चारपाई के पास जाकर खड़ा हो गया। सूरदास ने चौंककर पूछा-"कौन है, भैरो?"

मिठुआ-"दादा, मैं हूँ।"

सूरदास-"बहुत अच्छे आये बेटा, तुमसे भेंट हो गई। इतनी देर क्यों हुई!"

मिठुआ-"क्या करूँ दादा, बड़े बाबू से साँझ से छुट्टी माँग रहा था, मगर एक-न-एक काम लगा देते थे। डाउन नंबर थी को निकाला, अप नंबर वन को निकाला, फिर पारसल गाड़ी आई, उस पर माल लदवाया, डाउन नंबर ठट्टी को निकालकर तब आने पाया हूँ। इससे तो कुली था, तभी अच्छा था कि जब जी चाहता था, जाता था; जब जी चाहता था, आता था, कोई रोकनेवाला न था । अब तो नहाने-खाने की फुरसत नहीं मिलती, बाबू लोग इधर-उधर दौड़ाते रहते हैं। किसी को नौकर रखने की समाई तो है नहीं, सेत-मेत में काम निकालते हैं।"

सूरदास-"मैं न बुलाता, तो तुम अब भी न आते। इतना भी नहीं सोचते कि अंधा आदमी है, न जाने कैसे होगा, चलकर जरा हाल-चाल पूछता आऊँ। तुमको इस लिए बुलाया है कि मर जाऊँ, तो मेरा किरिया-करम करना, अपने हाथों से पिंडदान देना, बिरादरी को भोज देना और हो सके, तो गया कर आना। बोलो, इतना करोगे?"