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रंगभूमि


स्थान नहीं है। मुझे एक छिपे हुए शत्रु से बचाना अपना कर्तव्य समझता है। यह तो भतीजा है; किंतु पुत्र की बात होती, तो भी मुझे अवश्य सतर्क कर देता।"

सोफिया-"मुझे तो अब विश्वास होता जाता है कि शिक्षा धूतों की स्रष्टा है, प्रकृति सत्पुरुषों की।"

जॉन सेवक को यह बात कुछ रुचिकर न लगी। शिक्षा की इतनी निंदा उन्हें असह्य थी। बोले-“सूरदास, मेरे योग्य कोई और सेवा हो, तो बताओ।"

सूरदास-"कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।"

सेवक-"नहीं-नहीं, जो कुछ कहना चाहते हो, निस्संकोच होकर कहो।"

सूरदास-"ताहिरअली को फिर नौकर रख लीजिएगा। उनके बाल-बच्चे बड़े कष्ट में हैं।"

सेवक-"सूरदास, मुझे अत्यंत खेद है कि मैं तुम्हारे आदेश का पालन न कर सकूँगा। किसी नीयत के बुरे आदमी को आश्रय देना मेरे नियम के विरुद्ध है। मुझे तुम्हारी बात न मानने का बहुत खेद है; पर यह मेरे जीवन का एक प्रधान सिद्धांत है, और उसे तोड़ नहीं सकता।"

सूरदास-"दया कभी नियम-विरुद्ध नहीं होती।"

सेवक-"मैं इतना कर सकता हूँ कि ताहिरअली के बाल-बच्चों का पालन-पोषण करता रहूँ । लेकिन उसे नौकर न रखूँगा।"

सूरदास-"जैसी आपकी इच्छा। किसी तरह उन गरीबों की परवस्ती होनी चाहिए।"

अभी ये बातें हो रही थी कि रानी जाह्नवी की मोटर आ पहुँची। रानी उतरकर सोफिया के पास आई और बोली-"बेटी, क्षमा करना, मुझे बड़ी देर हो गई। तुम घबराई तो नहीं? भिक्षुकों को भोजन कराकर यहाँ आने को घर से निकली, तो कुँवर साहब आ गये। बातों बातों में उनसे झौड़ हो गई। बुढ़ापे में मनुष्य क्यों इतना मायांध हो जाता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। क्यों मि० सेवक, आपका क्या अनुभव है?"

सेवक-"मैंने दोनों ही प्रकार के चरित्र देखे हैं। अगर प्रभु धन को तृण समझता है, तो पिताजी को फीकी चाय, सादी चपातियाँ और धुंधली रोशनी ही पसंद है। इसके प्रतिकूल डॉ० गंगुली हैं कि जिनकी आदमनी खर्च के लिए काफी नहीं होती और राजा महेंद्रकुमारसिंह, जिनके यहाँ धेले तक का हिसाब लिखा जाता है।"

यों बातें करते हुए लोग मोटरों की तरफ चले। मि० सेवक तो अपने बँगले पर गये; सोफिया रानी के साथ सेवा-भवन गई।