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रंगभूमि


बजरंगी-"घर नहीं, पत्थर मिला। सहर में रहूँ, तो इतना किराया कहाँ से लाऊँ, घास-चारा कहाँ मिले। इतनी जगह कहाँ मिली जाती है। हाँ, औरों की भाँति दूध में पानी मिलाने लगूँ, तो गुजर हो सकती है, लेकिन यह करम उम्र-भर नहीं किया, तो अब क्या करूँगा। दिहात में रहता हूँ, तो घर बनवाना पड़ता है; जमींदार को नजर-नजराना न दो, तो जमीन न मिले। एक-एक बिस्वे के दो-दो सौ माँगते हैं। घरबनवाने को अलग हजार रुपये चाहिए। इतने रुपये कहाँ से लाऊँ? जितना मावजा मिला है, उतने में तो एक कोठरी भी नहीं बन सकती। मैं तो सोचता हूँ, जानवरों को बेच डालूँ और यहीं पुतली घर में मजूरी करूँ। सब झगड़ा ही मिट जाय। तलब तो अच्छी मिलती है। और कहाँ-कहाँ ठिकाना ढूँढ़ते फिरें?"

जगधर-“यही तो मैं भी सोच रहा हूँ, बना-बनाया मकान रहने को मिल जायगा, पड़े रहेंगे। कहीं घर-बैठे खाने को तो मिलेगा नहीं! दिन-भर खोंचा लिये न फिरे, यहीं मजूरी की।"

ठाकुरदीन-“तुम लोगों से मजूरी हो सकती है, करो; मैं तो चाहे भूखों मर जाऊँ, पर मजूरी नहीं कर सकता। मजूरी सूद्रों का काम है, रोजगार करना बैसों का काम है। अपने हाथों अपना मरतबा क्यों खोयें, भगवान कहीं-न-कहीं ठिकाना लगायेंगे ही। यहाँ तो अब कोई मुझे सेत-मेत में रहने को कहे, तो न रहूँ। बस्ती उजड़ जाती है, तो भूतों का डेरा हो जाता है। देखते नहीं हो, कैसा सियापा छाया हुआ है, नहीं तो इस बेला यहाँ कितना गुलजार रहता था!"

नायकराम-"मुझे क्या सलाह देते हो बजरंगी, दिहात में रहूँ कि सहर में?"

बजरंगी-“भैया, तुम्हारा दिहात में निबाह न होगा। कहीं पीछे हटना ही पड़ेगा। रोज सहर का आना-जाना ठहरा, कितनी जहमत होगी। फिर तुम्हारे जात्री तुम्हारे साथ दिहात में थोड़े ही जायँगे। यहाँ से तो सहर इतना दूर नहीं था, इसलिए सब चले आते थे।"

नायकराम-"तुम्हारी क्या सलाह है जगधर?"

जगधर-"भैया, मैं तो सहर में रहने को न कहूँगा। खरच कितना बढ़ जायगा, मिट्टी भी मोल मिले, पानी के भी दाम दो। चालीस-पचास का तो एक छोटा-सा मकान मिलेगा। तुम्हारे साथ नित्त दस-बीस आदमी ठहरा चाहें। इसलिए बड़ा घर लेना पड़ेगा। उसका किराया सौ से नीचे न होगा। गाय-भैंसे कहाँ रखोगे? जात्रियों को कहाँ ठहराओगे? तुम्हें जितना मावजा मिला है, उतने में तो इतनी जमीन भी न मिलेगी, घर बनवाने की कौन कहे!"

नायकराम-“बोलो भाई बजरंगी, साल के १२००) किराये के कहाँ से आयेंगे? क्या सारी कमाई किराये ही में खरच कर दूंँगा?”

बजरंगी-"जमीन तो दिहात में भी मोल लेनी पड़ेगी, सेंत तो मिलेगी नहीं। फिर कौन जाने, किस गाँव में जगह मिले। बहुत-से आस-पास के गाँव तो ऐसे भरे हुए हैं