सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५४९
रंगभूमि


कि वहाँ अब एक झोपड़ी भी नहीं बन सकती। किसी के द्वार पर आँगन तक नहीं है। फिर जगह मिल गई, तो मकान बनवाने के लिए सारा सामान सहर से ले आना पड़ेगा। उसमें कितना खरच पड़ेगा! नौ की लकड़ी नब्बे खरच। कच्चा मकान बनवाओगे, तो कितनी तकलीफ! टपके, कीचड़ हो, रोज मनों कूड़ा निकले, सातवें दिन लीपने को चाहिए, तुम्हारे घर में कौन लीपनेवाला बैठा हुआ है। तुम्हारा रहा कच्चे मकान में न रहा जायगा। सहर में आने-जाने के लिए सवारी रखनी पड़ेगी। उसका खरच भी ५०) से नीचे न होगा। तुम कच्चे मकान में तो कभी रहे नहीं। क्या जानो दीमक, कीड़े-मकोड़े, सील, पूरी छीछालेदर होती है। तुम सैरबीन आदमी ठहरे। पान-पत्ता, साग भाजी दिहात में कहाँ? मैं तो यही कहूँगा कि दिहात के एक की जगह सहर में दो खरच पड़ें, तब भी तुम सहर ही में रहो। वहाँ हम लोगों से भी भेंट-मुलाकात हो जाया करेगो। आखिर दूध-दही लेकर सहर तो रोज जाना ही पड़ेगा।"

नायकराम-“वाह बहादुर, वाह! मान गया। तुम्हारा जोड़ तो भैरो था, दूसरा कौन तुम्हारे सामने ठहर सकता है। तुम्हारी बात मेरे मन में बैठ गई। बोलो जगधर, इसका कुछ जवाब देते हो, तो दो, नहीं तो बजरंगो की डिग्री होती है। सौ रुपये किराया देना मंजूर, यह झंझट कौन सिर पर लेगा!"

जगधर-"भैया, तुम्हारी मरजी है, तो सहर ही में चले जाओ, मैं बजरंगी से लड़ाई थोड़े ही करता हूँ। पर दिहात दिहात ही है, सहर सहर ही! सहर में पानी तक तो अच्छा नहीं मिलता। वही बंबे का पानी पियो, धरम जाय, और कुछ सवाद भी न मिले!"

ठाकुरदीन-'अन्धा आगमजानी था। जानता था कि एक दिन यह पुतलीघर हम लोगों को बनबास देगा, जान तक गंवाई, पर अपनी जमीन न दी। हम लोग इस किरंटे के चकमों में आकर उसका साथ न छोड़ते, तो साहब लाख सिर पटककर मर जाते, एक न चलती।"

नायकराम-"अब उसके बचने की कोई आसा नहीं मालूम होती। आज मैं गया था। बुरा हाल था। कहते हैं, रात को होस में था। जॉन सेवक साहब और राजा साहब से देर तक बातें की, मिठुआ से भी बातें कीं। सब लोग सोच रहे थे, अब बच जायगा। सिविलसारजंट ने मुझसे खुद कहा, अंधे की जान का कोई खटका नहीं है। पर सूरदास यही कहता रहा कि आपको मेरी जो साँसत करनी है, कर लीजिए, मैं बचूँ गा नहीं। आज बोल-चाल बन्द है। मिठुआ बड़ा कपूत निकल गया। उसी की कपूती ने अंधे की जान ली। दिल टूट गया, नहीं तो अभी कुछ दिन और चलता। ऐसे बीर बिरले ही कहीं होते हैं। आदमी नहीं था, देवता था।"

बजरंगी-"सच कहते हो भैया, आदमी नहीं था, देवता था। ऐसा सेर आदमी कहीं नहीं देखा। सच्चाई के सामने किसी की परवा नहीं की, चाहे कोई अपने घर का लाट ही क्यों न हो। घीसू के पीछे मैं उससे बिगड़ गया था, पर अब जो सोचता हूँ,

३५