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रंगभूमि


इतने में एक बुढ़िया सिर पर टोकरी रखे आकर खड़ी हो गई और बोली- "बहू, लड़कों के लिए भुट्टे लाई हूँ, क्या तुम्हारे मियाँ आ गये क्या?"

कुल्सूम बुढ़िया के साथ कोठरी में चली गई। उसके कुछ कपड़े सिये थे। दोनों में इधर-उधर की बातें होने लगी।

अँधेरी रात नदी की लहरों की भाँति पूर्व दिशा से दौड़ी चली आती थी। वे खंडहर ऐसे भयानक मालूम होने लगे, मानों कोई कबरिस्तान है। नसीमा और साबिर, दोनों आकर ताहिरअली की गोद में बैठ गये।

नसोमा ने पूछा-"अब्बा, अब तो हमें छोड़कर न जाओगे?"

साबिर-"अब जायेंगे, तो मैं इन्हें पकड़ लूँगा। देखें, कैसे चले जाते हैं!"

ताहिर-"मैं तो तुम्हारे लिए मिठाइयाँ भी नहीं लाया।"

नसीमा-"तुम तो हमारे अब्बाजान हो। तुम नहीं थे, तो चचा ने हमें अपने पास से भगा दिया था।"

साबिर-"पंडाजी ने हमें पैसे दिये थे, याद है न नसीमा?"

नसीमा-"और सूरदास की झोपड़ी में हम-तुम जाकर बैठे, तो उसने हमें गुड़ खाने को दिया था। मुझे गोद में उठाकर प्यार करता था।"

साबिर-"उस बेचारे को एक साहब ने गोली मार दी अब्बा! मर गया।"

नसीमा-"यहाँ पलटन आई थी अब्बा, हम लोग मारे डर के घर से न निकलते थे, क्यों साबिर!"

साबिर-"निकलते, तो पलटनवाले पकड़ न ले जाते!"

बच्चे तो बाप की गोद में बैठकर चहक रहे थे; किंतु पिता का ध्यान उनकी ओर न था। वह माहिरअली से मिलने के लिए विकल थे, अब अवसर पाया, तो बच्चों से मिठाई लाने का बहाना करके चल खड़े हुए। थाने पर पहुँचकर पूछा, तो मालूम हुआ कि दारोगाजी अपने मित्रों के साथ बँगले में विराजमान हैं। ताहिरअली बँगले की तरफ चले। वह फूस का अठकोना झोपड़ा था, लताओं और बेलों से सजा हुआ। माहिरअली ने बरसात में सोने और मित्रों के साथ विहार करने के लिए इसे बनवाया था। चारों तरफ से हवा जाती थी। ताहिरअली ने समीप जाकर देखा, तो कई भद्र पुरुष मसनद लगाये बैठे हुए थे। बीच में पीकदान रखा हुआ था। खमीरा तंबाकू धुआँधार उड़ रहा था। एक तश्तरी में पान-इलायची रखे हुए थे। दो चौकीदार खड़े पंखा झल रहे थे। इस वक्त ताश की बाजी हो रही थी। बीच-बीच में चुहल भी हो जाती थी। ताहिरअली की छाती पर साँप लोटने लगा। यहाँ ये जलसे हो रहे हैं, यह ऐश का बाजार गर्म है, और एक मैं हूँ कि कहीं बैठने का ठिकाना नहीं, रोटियों के लाले पड़े हैं। यहाँ जितना पान-तंबाकू में उड़ जाता होगा, उतने में मेरे बाल-बच्चों की परवरिश हो जाती। मारे क्रोध के ओठ चबाने लगे। खून खौलने लगा। बेधड़क मित्र-समाज में घुस गये और क्रोध तथा ग्लानि से उन्मत्त होकर बोले-"माहिर! मुझे पहचानते हो,