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रंगभूमि


कौन हूँ? गौर से देख लो। बढ़े हुए बालों और फटे हुए कपड़ों ने मेरी सूरत इतनी नहीं बदल डाली है कि पहचाना न जा सकूँ। बदहाली सूरत को नहीं बदल सकती। दोस्तो, आप लोग शायद न जानते होंगे, मैं इस बेवफा, दगाबाज, कमीने आदमी का आई हूँ। इसके लिए मैंने क्या-क्या तकलीफें उठाई, यह मेरा खुदा जानता है। मैंने अपने बच्चों को, अपने कुनबे को, अपनी जात को इसके लिए मिटा दिया, इसकी माँ और इसके भाइयों के लिए मैंने वह सब कुछ सहा, जो कोई इंसान सह सकता है, इसी की जरूरतें पूरी करने के लिए, इसके शौक और तालीम का खर्च पूरा करने के लिए मैंने कर्ज लिये, अपने आका की अमानत में खयानत की और जेल की सजा काटी। इन तमाम नेकियों का यह इनाम है कि इस भले आदमी ने मेरे बाल-बच्चों की बात भी न पूछी। यह उसी दिन मुरादाबाद से आया, जिस दिन मुझे सजा हुई थी। मैंने इसे तागे पर आते देखा, मेरी आँखों में आँसू छलक आये, मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा कि मेरा भाई अभी आकर मुझे दिलासा देगा और खानदान को सँभालेगा। पर यह एहसानफरामोश आदमी सीधा चला गया, मेरी तरफ ताका तक नहीं, मुँह फेर लिया। उसके दो-चार दिन बाद यह अपने भाइयों के साथ यहाँ चला आया, मेरे बच्चों को वहीं वीराने में छोड़ दिया। यहाँ मजलिस सजी हुई है, ऐश हो रहा है, और वहाँ मेरे अँधेरे घर में चिराग-बत्ती का भी ठिकाना नहीं। खुदा अगर मुंसिफ होता तो इसके सिर पर उसका कहर बिजली बनकर गिरता। लेकिन उसने इन्साफ करना छोड़ दिया। आप लोग इस जालिम से पूछिए कि क्या मैं इसी सलूक और बेदरदी के लायक था, क्या इसी दिन के लिए मैंने फकीरों की-सी जिन्दगी बसर की थी? इसको शरमिंद कीजिए, इसके मुँह में कालिख लगाइए, इसके मुंह पर थूकिए। नहीं, आप लोग इसके दोस्त हैं, मुरौवत के सबब इंसाफ न कर सकेंगे। अब मुझी को इन्साफ करना पड़ेगा! खुदा गवाह है और खुद इसका दिल गवाह है कि आज तक मैंने इसे कभी तेज निगाह से भी नहीं देखा, इसे खिलाकर खुद भूखों रहा, इसे पहनाकर खुद नंगा रहा। मुझे याद ही नहीं आता कि मैंने कब नये जूते पहने थे, कब नये कपड़े बनवाये थे, इसके उतारों ही पर मेरी बसर होती थी। ऐसे जालिम पर अगर खुदा का अजाब नहीं गिरता, तो इसका सबब यही है कि खुदा ने इन्साफ करना छोड़ दिया।"

ताहिरअली ने जल-प्रवाह के वेग से अपने मनोद्गार प्रकट किये और इसके पहले कि माहिरअली कुछ जवाब दें, या सोच सकें कि क्या जवाब दूं, या ताहिरअली को रोकने की चेष्टा करें, उन्होंने झपटकर कलमदान उठा लिया, उसकी स्याही निकाल ली और माहिरअली की गरदन जोर से पकड़कर स्याही मुँह पर पोत दी, तब तीन बार उन्हें झुक-झुककर सलाम किया और अन्त में यह कहकर वहीं बैठ गये-"मेरे अरमान-निकल गये, मैंने आज से समझ लिया कि तुम मर गये और तुमने तो मुझे पहले ही से मरा हुआ समझ लिया है। बस, हमारे दरमियान इतना ही नाता था। आज यह भी टूट गया। मैं अपनी सारी तकलीफों का सिला और इनाम पा गया। अब तुम्हें अख्ति-