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रंगभूमि


कुल्सूम-"इसकी ऐसी क्या जल्दी थी! कल मिल लेते। तुम्हें यों फटे हाल देख-कर शरमाये तो न होंगे?"

ताहिरअली-"मैंने उसे वह लताड़ सुनाई कि उम्र-भर न भूलेगा। जबान तक न बुली। उसी गुस्से में मैंने उसके मुँह में कालिख भी लगा दी।"

कुल्सूम का मुख मलिन हो गया। बोली-"तुमने बड़ी नादानी का काम किया। कोई इतना जामे से बाहर हो जाता है! यह कालिख तुमने उनके मुँह में नहीं लगाई, अपने मुँह में लगाई है, तुम्हारे जिंदगी भर के किये-धरे पर स्याही फिर गई। तुमने अपनी सारी नेकियों को मटियामेट कर दिया। आखिर यह तुम्हें सूझी क्या? तुम तो इतने गुस्सेवर कभी न थे। इतना सब्र न हो सका कि अपने भाई ही थे, उनकी पर-वरिश की, तो कौन-सी हातिम की कब्र पर लात मारी। छी-छी! इंसान किसी गैर के साथ भी नेकी करता है, तो दरिया में डाल देता है, यह नहीं कि कर्ज वसूल करता फिरे। तुमने जो कुछ किया, खुदा की राह में किया, अपना फर्ज समझकर किया। कर्ज नहीं दिया था कि सूद के साथ वापस ले लो। कहीं मुँह दिखाने के लायक न रहे, न रखा। अभी दुनिया उनको हँसती थी, देहातिनियाँ भी उनको कोसने दे जाती थीं। अब लोग तुम्हें हँसेंगे। दुनिया हँसे या न हँसे, इसकी परवा नहीं। अब तक खुदा और रसूल को नजरों में वह खतावार थे, अब तुम खतावार हो।"

ताहिरअली ने लज्जित होकर कहा-"हिमाकत तो हो गई, मगर मैं तो बिलकुल पागल हो गया था।"

कुल्सूम-"भरी महफिल में उन्होंने सिर तक न उठाया, फिर भी तुम्हें गैरत न आई। मैं तो कहूँगी, तुमसे कहीं शरीफ वही हैं, नहीं तुम्हारी आबरू उतार लेना उनके लिए क्या मुश्किल था!"

ताहिरअली-“अब यही खौफ है कि कहीं मुझ पर दावा न कर दे।"

कुल्सूम-"उनमें तुमसे ज्यादा इंसानियत है।"

कुल्सूम ने इतना लज्जित किया कि ताहिरअली रो पड़े और देर तक रोते रहे। फिर बहुत मनाने पर खाने उठे और खा-पीकर सोये।

तीन दिन तक तो वह इसी कोठरी में पड़े रहे। कुछ बुद्धि काम न करती थी कि कहाँ जायँ, क्या करें, क्योंकर जीवन का निर्बाह हो। चौथे दिन घर से नौकरी की तलाश करने निकले, मगर कहीं कोई सूरत न निकली। सहसा उन्हें सूझी कि क्यों न जिल्द-बंदी का काम करूँ; जेलखाने में वह यह काम सीख गये थे। इरादा पक्का हो गया। कुल्सूम ने भी पसंद किया। बला से थोड़ा मिलेगा, किसी के गुलाम तो न रहोगे। सनद की जरूरत नौकरी के लिए ही है, जेल भुगतनेवालों की कहीं गुजर नहीं। व्यवसाय करनेवालों के लिए किसी सनद की जरूरत नहीं, उनका काम हो उनकी सनद है। चौथे दिन ताहिरअली ने यह मकान छोड़ दिया और शहर के दूसरे मुहल्ले में एक छोटा-सा मकान लेकर जिल्दबंदी का काम करने लगे।