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रंगभूमि


सोफिया ने उनके मुख की ओर देखा, तो त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं। उठकर चली गई। तब राजा साहब इंदु से बोले-"तुम मुझसे बिना पूछे क्यों ऐसे काम करती हो, जिनसे मेरा सरासर अपमान होता है? मैं तुम्हें कितनी बार समझाकर हार गया! आज उसी अंधे की बदौलत मुझे मुँह की खानी पड़ी, बोर्ड ने मुझ पर अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दिया, और उसी की प्रतिमा के लिए तुमने चंदा दिया और मुझे भी देने को कह रही हो।"

इंदु-"मुझे क्या खबर थी कि बोर्ड में क्या हो रहा है। आपने भी तो कहा था कि उस प्रस्ताव के पास होने की संभावना नहीं है।"

राजा-"कुछ नहीं, तुम मेरा अपमान करना चाहती हो।"

इंदु-"आप उस दिन सूरदास का गुणगान कर रहे थे। मैंने समझा, चंदा देने में कोई हरज नहीं है। मैं किसी के मन के रहस्य थोड़े ही जानती हूँ। आखिर वह प्रस्ताव पास क्योंकर हो गया?"

राजा-"अब मैं यह क्या जानूँ, क्योंकर पास हो गया। इतना जानता हूँ कि पास" हो गया। सदैव सभी काम अपनी इच्छा या आशा के अनुकूल ही तो नहीं हुआ करते। जिन लोगों पर मेरा पूरा विश्वास था, उन्हीं ने इस अवसर पर दगा दी, बोर्ड में आये ही नहीं। मैं इतना सहिष्णु नहीं हूँ कि जिसके कारण मेरा अपमान हो, उसी की पूजा करूँ। मैं यथाशक्ति इस प्रतिमा-आंदोलन को सफल न होने दूंगा। बदनामी तो हो ही रही है, और हो, इसकी परवा नहीं। मैं सरकार को ऐसा भर दूंगा कि मूर्ति खड़ी न होने पायेगी। देश का हित करने की शक्ति अब चाहे न हो, पर अहित करने की है, और दिन-दिन बढ़ती जायगी। तुम भी अपना चंदा वापस कर लो।"

इंदु-(विस्मित होकर) "दिये हुए रुपये वापस कर लूँ?"

राजा- हाँ, इसमें कोई हरज नहीं।”

इंदु-'आपको कोई हरज न मालूम होता हो, मेरी तो इसमें सरासर हेठी है।"

राजा-"जिस तरह तुम्हें मेरे अपमान की परवा नहीं, उसी तरह यदि मैं भी तुम्हारी हेठी की परवा न करूँ, तो कोई अन्याय न होगा।"

इंदु-"मैं आपसे रुपये तो नहीं माँगती।"

बात-पर बात निकलने लगी, विवाद की नौबत पहुँची, फिर व्यंग्य की बारी आई, और एक क्षण में दुर्वचनों का प्रहार होने लगा। अपने-अपने विचार में दोनों ही सत्य पर थे, इसलिए कोई न दबता था।

राजा साहब ने कहा-"न जाने वह कौन दिन होगा कि तुमसे मेरा गला छुटेगा। मौत के सिवा शायद अब कहीं ठिकाना नहीं है।"

इंदु-"आपको आनी कीर्ति और सम्मान मुबारक रहे। मेरा भी ईश्वर मालिक है। मैं भी जिंदगी से तंग आ गई। कहाँ तक लौंडो बनूँ, अब हद हो गई।"

राजा-"तुम मेरी लौंडी बनोगी! वे दूसरी सती स्त्रियाँ होती हैं, जो अपने पुरुषों