सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/५६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५६७
रंगभूमि


पर प्राण दे देती हैं। तुम्हारा बस चले, तो मुझे विष दे दो, और दे ही रही हो, इससे बढ़कर और क्या होगा!"

इंदु-"यह विष क्यों उगलते हो। साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि मेरे घर से निकल जा। मैं जानती हूँ, आपको मेरा रहना अखरता है। आज से नहीं, बहुत दिनों से जानती हूँ। उसी दिन जान गई थी, जब मैंने एक महरी को अपनी नई साड़ी दे दी थी और अपने महाभारत मचाया था। उसी दिन समझ गई थी कि यह बेल मुढे चढ़ने की नहीं। जितने दिन यहाँ रही, कभी आपने यह न समझने दिया कि यह मेरा घर है। पैसे-पैसे का हिसाब देकर भी पिंड नहीं छूटा। शायद आप समझते होंगे कि यह मेरे ही रुपये को अपना कहकर मनमाना खर्च करती है, और यहाँ आपका एक धेला छूने की कसम खाती हूँ। आपके साथ विवाह हुआ है, कुछ आत्मा नहीं बेची है।"

महेंद्र ने ओठ चबाकर कहा-'भगवान् सब दुःख दे, बुरे का संग न दे। मौत भले ही दे दे। तुम-जैसी स्त्री का गला घोंट देना भी धर्म-विरुद्ध नहीं। इस राज्य की-कुशल मनाओ कि चैन कर रही हो, अपना राज्य होता, तो यह कैंची की तरह चलने-वाली जबान तालू से खींच ली जाती।"

इंदु-"अच्छा, अब चुप रहिए, बहुत हो गया। मैं आपकी गालियाँ सुनने नहीं आई हूँ, यह लीजिए अपना घर, खूब टाँगें फैलाकर सोइए।"

राजा-"जाओ, किसी तरह अपना पौरा तो ले जाओ। बिल्ली बख्शे, चूहा अकेला ही भला।"

इंदु ने दबी जबान से कहा-“यहाँ कौन तुम्हारे लिए दीवाना हो रहा है!"

राजा ने क्रोधोन्मत्त होकर कहा-"गालियाँ दे रही है! जबान खींच लूँगा।"

इंदु जाने के लिए द्वार तक आई थी। यह धमकी सुनकर फिर पड़ी और सिंहनी की भाँति बफरकर बोली-"इस भरोसे न रहिएगा। भाई मर गया है, तो क्या, गुड़ का बाप कोल्हू तैयार है। सिर के बाल न बचेंगे। ऐसे ही भले होते, तो दुनिया में इतना अपयश कैसे कमाते।"

यह कहकर इंदु अपने कमरे में आई। उन चीजों को समेटा, जो उसे मैके में मिली थीं। वे सब चीजें अलग कर दी, जो यहाँ की थीं। शोक न था, दुःख न था, एक ज्वाला थी, जो उसके कोमल शरीर में विष की भाँति व्याप्त हो रही थी। मुँह लाल था, आँखें लाल थीं, नाक लाल थी, रोम-रोम से चिनगारियाँ-सी निकल रही थीं। अपमान आग्नेय वस्तु है।

अपनी सब चीजें सँभालकर इंदु ने अपनी निजी गाड़ी तैयार करने की आज्ञा दी। जब तक गाड़ी तैयार होती रही, वह बरामदे में टहलती रही। ज्यों ही फाटक पर घोड़ों की टाप सुनाई दी, वह आकर गाड़ी में बैठ गई, पीछे फिरकर भी न देखा। जिस घर की वह रानी थी, जिसको वह अपना समझती थी, जिसमें जरा-सा कूड़ा पड़ा रहने पर नौकरों के सिर हो जाती थी, उसी घर से इस तरह निकल गई, जैसे देह से प्राण निकल