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रंगभूमि


मरने पर भी तुम्हारा नाम अमर हो आयगा। रही तीर्थ यात्रा, उसके लिए रुपये की जरूरत नहीं। साधु-संत जन्म-भर यही किया करते हैं; पर घर से रुपयों की थैली बाँध कर नहीं चलते। मैं भी शिवरात्रि के बाद बद्रीनारायन जानेवाला हूँ। हमारा-तुम्हारा साथ हो जायगा। रास्ते में तुम्हारी एक कौड़ी न खर्च होगी, इसका मेरा जिम्मा है।"

सूरदास-"नहीं बाबा, अब यह कुन्याव नहीं सहा जाता। भाग्य में धर्म करना नहीं लिखा हुआ है, तो कैसे धर्म करूँगा। जरा इन लोगों को भी तो मालूम हो जाय कि सूरे भी कुछ है।"

दयागिर-"सूरे, आँखें बंद होने पर भी कुछ नहीं सूझता? यह अहंकार है, इसे मिटाओ। नहीं तो यह जन्म भी नष्ट हो जायगा। यही अहंकार सब पापों का मूल है-

मैं अरु मोर तोर तैं माया, जेहि बस कीन्हें जीव निकाया।'

न यहाँ तुम हो, न तुम्हारी भूमि है; न तुम्हारा कोई मित्र है, न शत्रु है; जहाँ देखो, भगवान्-ही-भगवान् हैं-

'ज्ञान-मान जह एकौ नाही, देखत ब्रह्म रूप सब माहीं।'

इन झगड़ों में न पड़ो।"

सूरदास-“बाबाजी, जब तक भगवान् की दया न होगी, भक्ति और वैराग, किसी पर मन न जमेगा। इस घड़ी मेरा हृदय रो रहा है, उसमें उपदेश और ज्ञान की बातें नहीं पहुँच सकतीं। गीली लकड़ी खराद पर नहीं चढ़ती।"

दयागिर-"पछताओगे और क्या।"

यह कहकर दयागिर अपनी राह चले गये। वह नित्य गंगा-स्नान को जाया करते थे।

उनके जाने के बाद सूरदास ने मन में कहा-यह भी मुझी को ज्ञान का उपदेश करते हैं। दीनों पर उपदेश का भी दाँव चलता है, मोटों को कोई उपदेश नहीं करता। वहाँ तो जाकर ठकुरसुहाती करने लगते हैं। मुझे ज्ञान सिखाने चले हैं। दोनों जून भोजन "मिल जाता है न! एक दिन न मिले, तो सारा ज्ञान निकल जाय।

वेग से चलती हुई गाड़ी रुकावटों को फाँद जाती है। सूरदास समझाने से और भी जिद पकड़ गया। सीधे गोदाम के बरामदे में जाकर रुका। इस समय वहाँ बहुत-से चमार जमा थे। खालों की खरीद हो रही थी। चौधरी ने कहा-"आओ सूरदास, कैसे चले?"

सूरदास इतने आदमियों के सामने अपनी इच्छा न प्रकट कर सका। संकोच ने उसकी जबान बन्द कर दी। बोला-"कुछ नहीं, ऐसे ही चला आया।"

ताहिर-“साहब इनसे पीछेवाली जमीन माँगते हैं, मुँह माँगे दाम देने पर तैयार हैं; पर यह किसी तरह राजी नहीं होते। उन्होंने खुद समझाया, मैंने कितनी मिन्नत की लेकिन इनके दिल में कोई बात जमती ही नहीं।"

लजा अत्यन्त निर्लज होती है। अंतिम काल में भी, जब हम समझते हैं कि उसकी उलटी सॉसें चल रही हैं, वह सहसा चैतन्य हो जाती है, और पहले से भी अधिक कर्तव्यशील हो जाती है। हम दुरवस्था में पड़कर किसी मित्र से सहायता की याचना