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रंगभूमि


करने को घर से निकलते हैं, लेकिन मित्र से आँखें चार होते ही लज्जा हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है, और हम इधर-उधर की बातें करके लौट आते हैं। यहाँ तक कि हम एक शब्द भी ऐसा मुँह से नहीं निकलने देते, जिसका भाव हमारी अंतर्वेदना का द्योतक हो।

ताहिरअली की बातें सुनते ही सूरदास की लज्जा ठट्ठा मारतो हुई बाहर निकल आई। बोला-"मियाँ साहब, वह जमीन तो बाप-दादों की निसानी है, भला मैं उसे बय या पट्टा कैसे कर सकता हूँ। मैंने उसे धरम-काज के लिए संकल्प कर दिया है।"

ताहिर—“धरम-काज बिना रुपये के कैसे होगा? जब रुपये मिलेंगे, तभी तो तोरथ करोगे, साधु-संतों की सेवा करोगे; मंदिर-कुआँ बनवाओगे।"

चौधरी—"सूरे, इस बखत अच्छे दाम मिलेंगे। हमारी सलाह तो यही है कि दे दो, तुम्हारा कोई उपकार तो उससे होता नहीं।"

सूरदास—"मुहल्ले-भर की गउएँ चरती हैं, क्या इससे पुन्न नहीं होता! गऊ की सेवा से बढ़कर और कौन पुन्न का काम है?"

ताहिर—“अपना पेट पालने के लिए तो भीख माँगते फिरते हो, चले हो दूसरों के साथ पुन्न करने। जिनकी गायें चरती हैं, वे तो तुम्हारी बात भी नहीं पूछते, एहसान मानना तो दूर रहा। इसी धरम के पीछे तुम्हारी यह दशा हो रही है, नहीं तो ठोकरें न खाते फिरते।”

ताहिरअली खुद बड़े दीनदार आदमी थे; पर अन्य धर्मों की अवहेलना करने में उन्हें संकोच न होता था। वारतव में वह इस्लाम के सिवा और किसी धर्म को धर्म ही नहीं समझते थे।

सूरदास ने उत्तेजित होकर कहा—"मियाँ साहब, धरम एहसान के लिए नहीं किया जाता। नेकी करके दरिया में डाल देना चाहिए।"

ताहिर—"पछताओगे और क्या। साहब से जो कुछ कहोंगे, वही करेंगे। तुम्हारे लिए घर बनवा देंगे, माहवार गुजारा देंगे, मिठुआ को किसी मदरसे में पढ़ने को भेज। देंगे, उसे नौकर रखा देंगे, तुम्हारी आँखों की दवा करा देंगे, मुमकिन है, सूझने लगे। आदमी बन जाओगे। नहीं तो धक्के खाते रहोगे।”

सूरदास पर और किसी प्रलोभन का असर तो न हुआ; हाँ, दृष्टि-लाभ की संभावना ने जरा नरम कर दिया। बोला—"क्या जनम के अंधों की दवा भी हो सकती है?"

ताहिर—"तुम जनम के अंधे हो क्या? तब तो मजबूरी है। लेकिन वह तुम्हारे आराम के इतने सामान जमा कर देंगे कि कि तुम्हें आँखों की जरूरत ही न रहेगी।"

सूरदास—"साहब, बड़ी नामूसी होगी। लोग चारों ओर से धिक्कारने लगेंगे।"

चौधरी—"तुम्हारी जायदाद है, बय करो, चाहे पट्टा लिखो, किसी दूसरे को दखल देने का क्या मजाज है!"

सूरदास—“बाप-दादों का नाम तो नहीं डुबाया जाता।"