सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६७
रंगभूमि

नायकराम—"मैं उस मुंसी के द्वार पर न जाऊँगा। उसका मिजाज और भी आस-मान पर चढ़ जायगा।"

बजरंगी--"नहीं पण्डाजी, मेरी खातिर से जरा चले चलो।"

नायकराम आखिर राजी हुए। दोनों आदमी ताहिरअली के पास पहुँचे। वहाँ इस वक्त सन्नाटा था। खरीद का काम हो चुका था। चमार चले गये थे। ताहिरअली अकेले बैठे हुए हिसाब-किताब लिख रहे थे। मीजान में कुछ फर्क पड़ता था। बार-बार जोड़ते थे; पर भूल पर निगाह न पहुँचती थी। सहसा नायकराम ने कहा--"कहिए मुंसीजी, आज सूरे से क्या बातचीत हुई?"

ताहिर—'अहा, आइए पण्डाजी, मुआफ कीजिएगा, मैं जरा मीजान लगाने में मस- रूप था, इस मोड़े पर बैठिए। सूरे से कोई बात तय न होगी। उसकी तो शामतें आई हैं। आज तो धमकी देकर गया है कि जमीन के साथ मेरी जान भी जायगी। गरीब आदमी है, मुझे उस पर तरस आता है। आखिर यही होगा कि साहब किसी कानून की रू से जमीन पर काबिज हो जायँगे। कुछ मुआवजा मिला, तो मिला, नहीं तो उसकी भी उम्मीद नहीं।"

नायकराम—"जब सूरे राजी नहीं है, तो साहब क्या खाके यह जमीन ले लेंगे! देख बजरंगी, हुई न वही बात, सूरे ऐसा कच्चा आदमी नहीं है।”

ताहिर—“साहब को अभी आप जानते नहीं हैं।”

नायकराम—"मैं साहब और साहब के बाप, दोनों को अच्छी तरह जानता हूँ। हाकिमों की खुशामद की बदौलत आज बड़े आदमी बने फिरते हैं।”

ताहिर—"खुशामद ही का तो आजकल जमाना है। वह अब इस जमीन को लिये वगैर न मानेंगे।"

नायकराम—"तो इधर भी यही तय है कि जमीन पर किसी का कब्जा न होने देंगे, चाहे जान जाय। इसके लिए मर मिटेंगे। हमारे हजारां यात्री आते हैं। इसी खेत में सबको टिका देता हूँ। जमीन निकल गई, तो क्या यात्रियों को अपने सिर पर ठहराऊँगा? आप साहब से कह दीजिएगा, यहाँ उनकी दाल न गलेगी। यहाँ भो कुछ दम रखते हैं। बारहों मास खुले-खजाने जुआ खेलते हैं। एक दिन में हजारों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। थानेदार से लेकर सुपरोडंट तक जानते हैं, पर मजाल क्या कि कोई दौड़ लेकर आये। खून तक छिपा डाले हैं।”

ताहिर—"तो" आप ये सब बातें मुझसे क्यों कहते हैं, क्या मैं जानता नहीं हूँ? आपन सैयद रजाअली थानेदार का नाम तो सुना ही होगा, मैं उन्हीं का लड़का हूँ। यहाँ कान पण्डा है, जिसे मैं नहीं जानता।”

नायकराम—"लीजिए, घर ही बैद, तो मरिए क्यों। फिर तो आप अपने घर ही के आदमी हैं। दरोगाजी की तरह भला क्या कोई अफसर होगा। कहते थे, बेटा, जो चाहे करो, 'लेकिन मेरे पंजे में न आना।' मेरे द्वार पर फड़ जमती थी, वह कुर्सी पर