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चतारी के राजा महेन्द्र कुमारसिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य-दक्षता और वंश-प्रतिष्ठा के कारण म्यूनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गये थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास-लोलुपता और सम्मान-प्रेम का उनके स्वभाव में लेश भी न था। बहुत ही सादे वस्त्र पहनते, ठाट-बाट से घृणा थी, और व्यसन तो उन्हें छू तक न गया था। घुड़दौड़, सिनेमा, थिएटर, राग-रङ्ग, सैर और शिकार, शतरंज या ताशबाज़ी से उन्हें कोई प्रयोजन न था। हाँ, अगर कुछ प्रेम था, तो उद्यान-सेवा से। वह नित्य घंटे-दो घंटे अपनी वाटिका में काम किया करते थे। बस, शेष समय नगर के निरीक्षण और नगर-संस्था के संचालन में व्यतीत करते थे। राज्याधिकारियों से वह बिला जरूरत बहुत कम मिलते थे। उनके प्रधानत्व में शहर के केवल उन्हीं भागों को सबसे अधिक महत्त्व न दिया जाता था, जहाँ हाकिमों के बँगले थे; नगर की अँधेरी गलियों और दुर्गन्धमय परनालों की सफाई सुविस्तृत सड़कों और सुरम्य विनोद-स्थानों की सफाई से कम आवश्यक न समझी जाती थी। इसी कारण हुक्काम उनसे खिंचे रहते थे, उन्हें दंभी और अभिमानी समझते थे। किंतु नगर के छोटे-से-छोटे मनुष्य को भी उनसे अभिमान या अविनय की शिकायत न थी। हर समय हरएक प्राणी से प्रसन्न-मुख मिलते थे। नियमों का उल्लंघन करने के लिए उन्हें जनता पर जुर्माना करने या अभियोग चलाने की बहुत कम जरूरत पड़ती थी। उनका प्रभाव और सद्भाव कठोर नीति को दबाये रखता था। वह अत्यंत मितभापो थे। वृद्धावस्था में मौन विचार-प्रौढ़ता का द्योतक होता है, और युवावस्था में विचार-दारिद्रय का; लेकिन राजा साहब का वाक-संयम इस धारणा को असत्य सिद्ध करता था। उनके मुँह से जो बात निकलती थी, विवेक और विचार से परिष्कृत होती थी। एक ऐश्वर्यशाली तालुकदार होने पर भी उनकी प्रवृत्ति साम्य-बाद की ओर थी। संभव है, यह उनके राजनीतिक सिद्धान्तों का फल हो; क्योंकि उनकी शिक्षा, उनका प्रभुत्व, उनकी परिस्थिति, उनका स्वार्थ, सब इस प्रवृत्ति के प्रतिकूल था; पर संयम और अभ्यास ने अब इसे उनके विचार-क्षेत्र से निकालकर उनके स्वभाव के अन्तर्गत कर दिया था। नगर के निर्वाचन क्षेत्रों के परिमार्जन में उन्होंने प्रमुख भाग लिया था; इसलिए शहर के अन्य रईस उनसे सावधान रहते थे। उनके विचार में राजा साहब का जनतावाद केवल उनकी अधिकार-रक्षा का साधन था। वह चिरकाल तक इस सम्मान्य पद का उपभोग करने के लिए यह आवरण धारण किये हुए थे। पत्रों में भी कभी-कभी इस पर टीकाएँ होती रहती थीं, किन्तु राजा साहब इनका प्रतिवाद करने में अपनी बुद्धि और समय का अपव्यय न करते थे। यशस्वी वनना उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था; पर वह खूब जानते थे कि इस महान् पद पर पहुँचने के लिए सेवा—और निःस्वार्थ सेवा—के सिवा और कोई मार्ग नहीं है।