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पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/८

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रंगभूमि


एक व्यक्ति उनका गुमाश्ता था। बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।

जॉन सेवक ने पूछा—"कहिए खाँ साहब, चमड़े की आमदनी कैसी है?"

ताहिर—“हुजूर, अभी जैसी होनी चाहिए, वैसी तो नहीं है, मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।

जॉन सेवक—"कुछ दौड़-धूप कीजिए, एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आस-पास के देहातों का चक्कर लगाया कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूँ। तब आसपास के चमार यहाँ रोज़ आयेंगे, और आपको उनसे मेल-जोल पैदा करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिए, ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा, जिस दिन शहर के दो-चार धनी-मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गई, तो कई दिनों की दौड़-धूप ठिकाने लग जाती है।"

ताहिर—"हुजूर, मुझे खुद फिक्र है। क्या जानता नहीं हूँ कि मालिक को चार पैसे का नफा न होगा, तो वह यह काम करेगा ही क्यों? मगर हुजूर ने मेरो जो तनख्वाह मुकर्रर की है, उसमें गुजर नहीं होता। बीस रुपये का तो गल्ला भी काफी नहीं होता, और सब ज़रूरतें अलग। अभी आपसे कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं पड़ती; मगर आपसे न कहूँ, तो किससे कहूँ।"

जॉन सेवक—"कुछ दिन काम कीजिए, तरक्की होगी न। कहाँ है आपका हिसाबकिताब, लाइए, देखूँ।"

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़े पर बैठ गये। मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं। ताहिरअली ने हिसाब की बही सामने लाकर रख दी। साहब उसकी जाँच करने लगे। दो-चार पन्ने उलट-पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले"अभी आपको हिसाब-किताब लिखने का सलीका नहीं है, उस पर आप कहते हैं, तरक्की कर दीजिए। हिसाब बिलकुल आईना होना चाहिए; यहाँ तो कुछ पता ही नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदा, और कितना माल रवाना किया। खरीदार को प्रति खाल एक आना दस्तूरी मिलती है, वह कहीं दर्ज ही नहीं है!”

ताहिर--"क्या उसे भी दर्ज कर दूँ?"

जॉन सेवक—"क्यों, वह मेरी आमदनी नहीं है?"

ताहिर—"मैंने तो समझा है, वह मेरा हक है।"

जॉन सेवक—"हरगिज़ नहीं, मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूँ। (त्योरियाँ बदलकर) मुलाजिमों का हक है! खूब! आपका हक है तनख्वाह, इसके सिवा आपका कोई हक नहीं।"

ताहिर—“हुजूर, अब आइंदा ऐसी गलती न होगी।"